ह म ख्वाब बेचते हैं | पता नहीं कितने सालों से, शायद जब से पैदा हुआ यही काम किया, ख्वाब बेचा | दो आने का ख्वाब खरीदा, उसे किसी नुक्कड़ पे खालिश ख्वाब कह के किसी को बेच आये | जब कभी वो शख्स दुबारा मिला तो शिकायत करता - "जनाब पिछली बार का ख्वाब आपका अच्छा नहीं रहा |" अब अपने ख़्वाबों की बुराई किसे बुरी नहीं लगती | तुरंत तमककर बोले, "आज अगर नींद के मोहल्ले में कोई कह दे कि मेरे ख़्वाबों में वो मजा नहीं है, जायेका नहीं है, या फिर तंदुरुस्ती नहीं है, तो सब छोड़ के काशी चला जाऊं |" ख्वाब खरीदने वाला सहम जाता है | इधर नाचीज़ देखता है कि साहब शायद नाराज हो गए, कहीं अगली बार से हमसे ख्वाब खरीदना बंद न कर दें | तुरंत चेहरे का अंदाज बदल कर कहते हैं, "अरे साहब, बाप दादों की कमाई है ये ख्वाब, उनका खून लगा है इस ख्वाब में | अपना होता तो एक बार को सुन लेता, चूं-चां भी न करता | लेकिन खानदान की याद आते ही दिल मसोस कर रह जाता हूँ |" साहब का बिगड़ा अंदाज फिर ठीक हो जा...