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स्वाल (संदेसा)


बकी बम्बई से कमल की चिट्ठीपत्री कुछ न आयी, तो रामचरण को थोड़ी चिंता हुई | कमल हर तीन मास में एक चिट्ठी तो लिखता, कम से कम | कहीं कुछ हो तो...न न, राम राम ये पापी प्राण भी हमेशा कुछ अपशकुनी ही सोचता है | वैसे भी पिछली चिट्ठी में उसने लिखा था कि यू पी, बिहार के पुरब्यों से है बम्बई वालों को परेशानी, हम पहाड़ियों से थोड़े ही | हमें तो जैसे ही सुनते हैं कि उत्तराखंड से है, तो खुश हो के पूछते हैं, वो रिशिकेस, हरिद्वार वाला ? कभी किसी ने पूछ लिया कि जाति क्या है, और हम बताते हैं सकलानी, ब्रह्मण हैं, गढ़वाली ब्रह्मण | पंडा जी कह कर पैर छूते हैं, आज भी | रामचरण भी बहुत खुश हुआ था चिट्ठी पढ़कर | बरसों पहले पिताजी गए थे परदेस, क्या जगह थी यार वो, काफी जजमानी थी वहां पे पिताजी की | आज तक चिट्ठी भेजते हैं वो लोग | यादों पर काफी जोर डालने पर भी रामचरण को जगह का नाम याद नहीं आया, अलबत्ता ये जरूर याद आ गया कि कमल ने चिट्ठी नहीं भेजी | यहाँ बैठे रहने से तो कुछ होगा नहीं, भागवत के लड़के को पूछ आते हैं | वो भी वहीँ था बम्बई में, आजकल छुट्टी आया हुआ है |

"रमेश!ऐ रमेश!!!" रामचरण ने आँगन से आवाज लगायी | भागवत आँगन में ही था, 'भैजी प्रणाम' के एक छोटे से संबोधन के बाद मुंह फेरकर घाम तापने लगा |
"बडा प्रणाम!" रमेश ने भी द्वार तक आते आते उत्तर दिया "बडा! आओ, भीतर आ जाओ |"
रामचरण ने आगे कदम नहीं बढ़ाया, मन ही मन झुंझलाए भी | ये रमेश हर बार क्यूँ भूल जाता है कि भागवत के साथ मेरी अनबन है | कभी समझता ही नहीं कि भागवत ने जुदा माँगा था | वहीं से बोले, "न बाबा, मैं तो ये पूछने को आया था कि कमल की चिट्ठी नहीं आयी | क्या बात हुई होगी ? ऐसा तो कभी न करता था वो | मंगसीर में आई थी उसकी चिट्ठी | इधर होली आने वाली |" रामचरण ने बोल तो दिया लेकिन मन को अभी और खंगाल रहे थे कि कहीं शायद कुछ था जो मैं घर से सोच के चला था कि पूछूँगा, यहाँ पे आते ही भूल गया |
"बडा! मैं तो दूसरे होटल में काम करता हूँ | फ़ोन फान भी नहीं किया क्या प्रधान चाचा के मोबाइल पे | करना तो चाहिए था, ऐसे ही किसी काम में उलझ गए होंगे भाईजी |" रमेश भी थोड़ा चिंतित हो गया, बोला, "बडा! तुम फिकर न करो, मैं दिन में जाता हूँ लाटा मार्किट | वहां से मैं फ़ोन करता हूँ आसीस को, देवी चाचा का लड़का है मुंबई में, उसको पूछता हूँ |"
रामचरण गदगद हो उठे, "हाँ बेटा, पूछ तो जरा |"
तभी रमेश की घरवाली ने रामचरण के पैरों की धूल माथे ली | "जीती रहो बहु, खूब खुश राख्य चौरंगी" रामचरण ने दुआ दी | रमेश की घरवाली को देखकर उन्हें अपने कमल की बहू का स्मरण हो आया | सुनीता मायके गयी हुयी है, क्या पता वहां फ़ोन या चिट्ठी कुछ किया हो |

रामचरण घर आ गए, पर किसी काम में जी नहीं लगा | "ऐ कमल की माँ| जरा च्हा बना देना थोड़ी |"
जमुना च्हा बना के लाई, "क्या बोला रमेश ने ? क्यूँ नी आरी बल कमल की चिट्ठी |"
रामचरण ने जमुना की तरफ देखा, "दिन में फ़ोन करेगा बल रमेश बम्बई |"
जमुना के सबर का बाँध टूट गया, "ब्वारी को भी एक महिना होने वाला है मैके में | वो भी भली, एक बार गयी तो दुबारा मुड के भी न देखी |" आवाज लगायी, "ऐ परकास! चल नास्ता करके इस्कूल के लिए तयार हो जा |" रामचरण शान्ति से घाम तापने के लिए बैठ गए, पता था कि अब जमुना किसी के रोके रुकने वाली नहीं |
जमुना ने बैट ले जाते प्रकाश को रोका, "चल जल्दी इस्कूल के लिए तयार हो जा, नहीं तो इसी से कूट दूँगी |"
प्रकाश एक पल को सहम गया | लेकिन माँ के इस रूप को पहले भी देख चुका था, इसलिए एक चांस लेते हुए बोला, "माँ, आज ग्यार बजे है इस्कूल, उससे पहले हमारी किलास नहीं है |"
"ज्यादा जबान तो तू चला न, तेरा काल आया है शायद |" जमुना रौद्र हो गयी |
"आँ... जब मैंने भी होटल में ही काम करना है तो बथेरा तो पढ़ लिया मैंने हायस्कूल तक | अब क्या मैंने प्रधान मंत्री..." चट्टाक ...आगे कुछ बोलने से पहले ही जमुना के तमाचे ने उसे खामोश कर दिया, "आज हेरोगिरी सूझ रही है बेटा, जब गाँव में इस्कूल खुल गया| कमल चार गदरा पार करके जाता था इस्कूल पढ़ने |"
बच्चों को वाक्य पूरा करने की भी जिद होती है, अपना लाल हुआ कान थामे प्रकाश बोल ही पड़ा, "हाँ तो कमल कौन सा प्रधान मंत्री बन गया |"

रामचरण के चले जाने के बाद भागवत को घाम काफी अखरने लगा था | अन्दर आकर सुमनी से बोले, "घाम आज काफी चढ़चढ़ाया हुआ है |"
सुमनी समझदार थी, तुरंत ताड़ गयी, "जेठजी आज क्यूँ आये थे ?"
भागवत कुछ खिसियाकर बोले, "अरे वो कमल की चिट्ठी नहीं आई बल तीन मास से |"
सुमनी ने चौरंगी को सुमिरन कर हाथ जोड़ा, सर माथे लगाया, "हे भगवान्! हमारे बच्चों की रक्षा करे |" फिर भागवत से पूछा, "तुमने जेठजी को भीतर क्यूँ नी बुलाया ?"
भागवत सफाई देने लगे, "अरे रमेश ने बोला था, वो आये ही नहीं |
सुमनी ने अविश्वास से भागवत की तरफ देखा, कहना चाहती थी कि तुम बुलाते कि भैजी भीतर आ जाओ तो क्यूँ नी आते, मगर कहा नहीं | "क्यूँ नी भेजी मगर लड़के ने चिट्ठी, अर फ़ोन ही करता कमस कम |" सुमनी ने जैसे खुद से कहा | किसी अनिष्ट की आशंका से उसकी आँख फडकने लगी, जल्दी से देवता के कमरे में जाकर रोने लगी, "हमारा लड़का सही सलामत हो, हे चौरंगी!" कुछ सोचते हुए उसने अपने आंसू पोंछ दिए | रमेश को आवाज दी -"रमेश,ऐ रमेश!"
रमेश महाशय थोड़े आलसी प्रवृत्ति के हैं, जरा देर में जवाब दिया | "बेटा! जा जरा लाटा मार्किट से मिठाई ले आना, ब्वारी के साथ तेरे को अपने ससुराल भी जाना होगा | अर वही से जरा फोन कर देना वो देवी के लड़के को, क्या नाम उसका ...आसीस" सुमनी ने अपनी साड़ी ठीक करते हुए कहा | "माँ, मैं दिन में जाऊँगा | पर तुम कहाँ जा रही हो अभी ?" रमेश ने आँख मीचते हुए पूछा | "मेरे को जाने दे और तू अभी वो कर जो मैंने कहा, जा" सुमनी लगभग चीख उठी|

भागवत की घरवाली, सुमनी आई | रामचरण के पैरों की धूल माथे लेकर बोली, "जी, फ़ोन नि आया कमल का, हमारा रमेश बता रहा था |" जमुना के पैर छूकर दीदी प्रणाम कहा, "क्या बात हुई होगी दीदी ?"
रामचरण कुछ नहीं बोले | औरतों की बातचीत में आखिर क्या बोले | रामचरण को सुमनी हमेशा दोनों भाइयों में जुदा का कारज लगती है | ये सुमनी की ही बनिक बुद्धि थी जिसने भागवत को उलटी सीधी पट्टी पढाई थी | रामचरण को आज भी याद आता है सुमनी का बोलना, "बड़े है, तो हम हमेशा आदर करेंगे, लेकिन हमारा हक क्यूँ छोड़ दें ?"
रामचरण को अपना बचपन याद आ गया | 10 साल का था रामचरण, 5 साल की राजी और 2 साल का नन्हा भागवत, जब पिताजी भोपाल चले गए थे | अरे हाँ, याद आया, भोपाल थी वो जगह | दो साल बाद, सात साल की राजी को हैजा ने लील लिया | पिताजी भोपाल से नहीं आये | राजी को गदरा में बहाने के बाद कुछ रातें दोनों माँ बेटे ने आँखों में ही काटी थी | भागवत तो इतना छोटा था कि उसे पता ही नहीं कि उसकी दीदी कहाँ गयी | रामचरण को आज भी याद आती है राजी की | धीरे धीरे भागवत राजी की कमी पूरी करने लगा | रामचरण की हर ख़ुशी भागवत की ख़ुशी में ही होती थी | 17 साल का हो गया था रामचरण, तो पिताजी उसे लेकर भोपाल चले आये | यहाँ पर सभी लोग लोग उसे प्यार करते थे | उसे देखते ही पंडित जी का लड़का कहने लगते थे | पिताजी के काम में कुछ मदद भी करने लगा था | विष्णु सहस्रनाम और शिव स्त्रोतम का जाप सीख गया था | कुछ कुछ जन्मपत्री भी लगाने लगा था, मगर फलादेश अभी भी पिताजी ही लिखते थे | कुछ ही दिनों में रामचरण उकता गया | गाँव के बिना उसका जी नहीं लगता था | छोटे भागवत की हमेशा याद आती, तो वापस चला आया | पिताजी अबकी बार भागवत को अपने साथ ले गए | भागवत का मन भी रमा और ऐसा रमा कि भागवत ने खूब सारी जजमानी भी ले ली | इस बीच 71 की लड़ाई छिड़ी तो रामचरण फौज में भर्ती हो गए | बाद में जब पिताजी भोपाल से आये तो स्वास्थ्य काफी बिगड़ गया था | भागवत ने गाँव में ही नया घर बना लिया | यहीं से सुमनी ने कलह के बीज बोने शुरू कर दिए | भागवत ने पिताजी की जमीन में भी हिस्सा माँगा, और जुदा हो गया | माँ ने मरते वक़्त भी वादा ले लिया कि कुछ भी हो जाये तू कभी भागवत को किसी भी चीज़ के लिए न नहीं कहेगा | "नहीं माँ, कभी न नहीं कहूँगा |" रामचरण के नयन सजल थे |

भागवत अँधेरे कमरे में बैठे थे | बत्ती जलाने की हिम्मत न पड़ती थी | पता नहीं भैजी के आते ही वो इतने असहाय क्यूँ हो जाते है | न उनसे सही से कुछ बात कर पाते हैं, न ही उसके बाद अपने मन में आये अपराधबोध को हटा पाते है | आज भी उन्हें लगता है जैसे इस बंटवारे का दोष ज़बरदस्ती उन्ही के सर पे मढ़ दिया जाता है | गाँव उनकी तरफ ऐसे ही देखता है, जैसे उन्ही में ऐब रहे हों | अब तो सुमनी भी उन्हें ही कह रही थी कि जी को अन्दर क्यूँ नहीं बुलाया | अरे, यही था तो क्यूँ माँगा था वो मंदिर के पास वाले खेत का हिस्सा | जब एक एक गहने अलग कर रही थी भाभी, तब भैजी ने उनको रोका क्यूँ नहीं | ये हंसुली मेरी, ये बुलाक तेरी, कर्णफूल में लूंगी | अब लो कर्णफूल, ये सब तो रोज़ होगा ही | भैजी प्रणाम कहते हुए एक झलक देखा था उन्होंने रामचरण भैजी को | सुगर की दवाइयां चलती है भैजी की | अपने खलियान से नीचे आते आते तो थक जाते होंगे भैजी, भागवत ने पल भर को सोचा | कभी वो भी दिन था जब भैजी उसे पीठ पे बिठा के महासरताल मेला दिखाने ले गए थे | सुबह से शाम तक चलते रहे भैजी बिना रुके, बीच में उसे पूछते भी रहे कि भूख तो नहीं लगी | उसे याद आया जब उसने चूल्हे अलग करने की बात की थी, भैजी ने कहा था- "तेरे पैर पकड़ने है तो बोल, पर तू ऐसा मत कर भागवत | गाँव में कोई घर भी सुखी नी रह पाया जुदा होके |"
"जी, सुखी तो गाँव में अब कोई भी नी है | अपनी खेती बाड़ी भी कहाँ रही अब किसी की |" भागवत के कुछ बोलने से पहले ही सुमनी बोल उठी|
भागवत ने किसी तरह बात संभाली थी- "न भैजी! खेती बाड़ी तो अपने बस की नी है, तभी तो अपने हिस्से के खेत ले के उसे बुवाई पे किसी को दूंगा |"
रामचरण बस एक गहरा उच्छ्वास लेके रह गए | गहने छांटते हुए भाभी ने ठिठोली की- "सासू जी, तुम भी कुछ ले लो |" माँ कुछ न बोली, गहनों की पोटली इस घर में सालों बाद खुली थी | इतने गहने होने के बावजूद माँ ने सारी जिंदगी गले में एक कांच के दानों की पतली सी माला पहनी थी | गहनों की पोटली को ध्यान से देखा, जाने क्या सोचकर दो कंगन उठाये, सीने से चिमटा के बोली- "ये मेरी राजी के हैं |" और वही पर होश खो बैठी |

अगला दिन चढ़ आया था | रामचरण स्यूरा जाने को तैयार हुए ही थे कि भागवत नज़र आया , "भैजी! सिद्ध तुम्हारी |"
रामचरण बोले- "कुछ नहीं, कमल के ससुराल जा रहा हूँ कि कहीं वहां तो कोई चिट्ठी न आई | भागवत के अपनी चौखट पे आने पे रामचरण को थोड़ा आश्चर्य भी हुआ- "रमेश ने किया वहां फ़ोन ?"
भागवत ने कहा, "हाँ भैजी, बोल दिया उसने देवी के लड़के को, अर होटल में काम करता है न वो भी | तो आजकल में उसको बोल दिया कि पता कर आये कि कमल सकलानी किधर रहता है,कमस कम एड्रेस तो ले ही आये |"
थोड़ी देर की झिझक के बाद अवरुद्ध गले को साफ़ करते हुए भागवत बोले, "भैजी मैं भी चलता हूँ तुम्हारे साथ |"
भिमा बैंड तक पैदल आते-आते रामचरण रस्ते में तीन बार बैठ गए | यहाँ से बस मिलनी थी स्यूरा के लिए |
"भैजी आजकल दवाई कहाँ से चल रही है तुम्हारी" भागवत ने पूछा |
"दवाई तो निर्मल हॉस्पिटल का डाकटर है एक, विक्रम अहलुवालिया कि विक्रम सलूजा |" रामचरण को नामों को गड्मड करने की आदत थी|
"अहलुवालिया होगा| अर वो इटारसी से रामचन्द्र तिवारी की चिट्ठी आई थी| आपकी खोज खबर पूछ रहे थे| उनके बेटे महेशचंद्र ने लिखी थी|" भागवत ने बात आगे बढ़ाई, तो रामचरण के आगे रामचंद्र तिवारी का चेहरा घूम गया|
"रामचंद्र वही जो लाल साफा पहनते थे हमेशा, सिन्दूर का ही टीका करते थे| हनुमान जी के परम भक्त थे |"
"हाँ वही वही, आजकल तबियत खराब है उनकी, आखिरी वक़्त है शायद, उम्र भी हो ही गयी है | तो याद कर रहे थे कि कैसे तुमने उन्हें एक दिन शिव पंचाक्षरी सिखाया था | उनके बाद के जीवन में ये बहुत काम आया | लिखा था कि मन ही मन उन्होंने तुमको गुरु मान लिया था |"
रामचरण के होंठों पर हलकी सी मुस्कराहट आ गयी, जिसे वो भागवत से छिपा नहीं पाए| मन ही मन बुदबुदाये- "गुरु!"
भागवत भी मुस्कुरा पड़ा- "हाँ, सही में, कई चीज़ों में तो मैं भी तुमको गुरु मानता हूँ | जैसे तुम भागते तो क्या भागते थे, जैसे गोली छूटती हो | किसी के पकड़ में ही नहीं आते थे |"
रामचरण प्यार से बोले- "नहीं छोटे, तब तू मुझे इसलिए नहीं पकड़ पाता था, क्यूंकि तू छोटा था |"
भागवत ने नजरें झुका लीं- "आज भी कहाँ बड़ा हुआ हूँ भैजी |"

स्यूरा पहुँचने पर रामचरण ने एकदम से कुछ पूछ लेना उचित न समझा, इसलिए चुपचाप बैठ गए | स्यूरा वालों के समधी आये हुए थे, तो भागदौड़ शुरू होने लगी | जल्दी जल्दी बच्चों को दूकान पर भेजकर बिस्कुट नमकीन मंगाए गए | इधर दूसरी तरफ, घर के कुछ बुजुर्गो को ताश खेलने से लिवा लाने के लिए बच्चों की दौड़ आयोजित हुई | विजयी बच्चे को पुरस्कार स्वरुप कोफ़ी की टॉफी और दूसरे बच्चों की ईर्ष्या मिलनी थी | रामचरण बैठे बैठे बोर हो रहे थे तो समय बिताने के लिए उन्होंने पास ही में रखा अखबार उठा लिया | अखबार देखते ही उनके पैरों तले जमीन खिसक गयी, टाँगे भारी मालूम होने लगी, और सांस लेना तो जैसे भूल ही गए | मुख्य शीर्षक 'होटल ताज पर आतंकी हमला' बस इससे आगे वो कुछ नहीं पढ़ पाए | आँखों के आगे अँधेरा छा गया, कल सुबह का अपशकुन फिर से कानों में सांय सांय करने लगा | कुछ नहीं कहा, किसी से कुछ नहीं पूछा | चुपचाप बुत की तरह वहां पर बैठे रहे | बहू ने चरणों की धूल माथे लगायी लेकिन उसकी तरफ देखा तक नहीं | साल के सुधीर को बस देख कर घूरते रहे | मासूम सुधीर दादा की जेब चेक कर रहा था कि दादा उसके लिए कुछ लाये होंगे | वो हर एक जेब चेक कर रहा था और गुस्सा होता जा रहा था, आखिर में रो ही पड़ा |
किसी तरह से बेसुध से घर आये | भागवत को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था, आखिर भैजी ने वहां जाकर कुछ पूछा क्यूँ नहीं | घर आये तो रमेश, सुमनी भी चौके में ही बैठे थे | जमुना एक कोने में रुआंसी हो रही थी | रामचरण ने एक नज़र जमुना की तरफ देखा, जमुना ने कुछ डरते हुए एक कागज़ उनकी तरफ बढ़ा दिया |
आदरणीय पिताजी अवं माताजी,
सर झुका कर दंडवत प्रणाम, सर्वप्रथम शरीर स्वस्थ तदनंतर अन्य कारज होंगे जी | मैं यहाँ पर आपकी कृपा से और चौरंगी देवता के आशीर्वाद से कुशल हूँ, और सदा आपकी कुशलता की कामना करता हूँ |
पिताजी, मैंने एक नए होटल में जॉब चेंज कर ली है | अब मैं होटल वसंत में आ गया हूँ | मुझे पूरे पन्दरह हजार रूपये मिलते हैं | पिताजी मैं चाहता हूँ कि आपकी जमीन में जो मेरा हिस्सा हो वो आप बेच दें और उतने हिस्से के रूपये मुझे दे दे, फिर मैं सुनीता और सुधीर को भी यही मुंबई ले आऊंगा | मैं आपको पहले की तरह ही मनी औडर भेजता रहूँगा |
आपका आज्ञाकारी पुत्र,
कमल सकलानी

रामचरण ने राहत की सांस ली | "कहाँ से आया ये पत्र" रामचरण ने पूछा|
"जी, मैं डाकघर गयी थी| वहां पता चला कि आजकल पिन कोड बदल रहे हैं, इसलिए चिट्ठियां भेजने में थोड़ा दिक्कत आ रही है" सुमनी बोली|
रामचरण ने सुमनी की बुद्धिमता को मन ही मन सराहा| जमुना हैरान सी आई- "अब क्या करें, लड़के ने तो बंटवारे की बात लिखी है| अर तब पता नहीं भेजता है मनी औडर कि नहीं| क्या करना है अब ?"
"करना क्या है, शाम को परकास को स्यूरा भेज के बहू को बोलना कि सामन वामन रेडी रखे और यहाँ आ जाये, कमल आके उसको ले जाएगा |" रामचरण के आंसू छलकने को होने ही आये थे, "अर भागवत!"
बंटवारे की बात आते ही भागवत एक कोने में सर झुकाए गुनाहगार से खड़े हो गए, "जी!"
"उस जमीन की लिखत पडत करा देना अच्छे से | जरा सही दाम मिल जाएँ तो कमल को घर खरीदने में मुश्कल न होगी |" और रामचरण देवता के कमरे में जाकर चौरंगी की तस्वीर के आगे गिर गए|

टिप्पणियाँ

Manoj K ने कहा…
क्या लिखा है मित्र, सच में गाँव और गाँव के लोग दिखने लागे.. भाषा का टच भी गज़ब दिया है. पहली ही पोस्ट में आपके कायल हो गए. कोई किताब भी छपी है आपकी, बताना कौन पब्लिशर है.

मनोज खत्री
दीपक बाबा ने कहा…
गज़ब लिखा है दोस्त.......
Smart Indian ने कहा…
कहानी बहुत सुन्दर है परंतु शिकायत कहानी से नहीं बल्कि ब्लॉग के शीर्षक से है। इतनी आर्द्रता है कि अगर मैं इस समय नामकरण करता तो "भीगे पन्ने" कहता शायद!
Neeraj ने कहा…
@मनोज
कोई किताब नहीं छपी है दोस्त :) ओब्ज़र्व करना मजबूरी है और लिखना शौक, इसलिए लिख रहे हैं

@ दीपक बाबा
आपको अच्छा लगा, यही बहुत है मेरे लिए

@स्मार्ट इंडियन
आपका ब्लॉग पढता हूँ, कहानियां आपकी जबानी भी सुनता हूँ| अच्छा लगता है|
बाकी ब्लॉग का नाम दरअसल निर्मल वर्मा के टाइटल कव्वे और काला पानी से लिया था, बदलते बदलते कांव कांव पब्लिकेशन हो गया|
Shubham Shubhra ने कहा…
मैं हाल ही ब्लॉग्गिंग की दुनिया में आया हूँ....आप ने गांव की याद दिला दी....
मार्मिक लगी ये रचना......
नीरज जी,
अभिभूत हूँ बस।

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