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जनवरी, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्रेमचंद के देश में

( कहानी कब तक पूरी होगी कह नहीं सकता , लेकिन अधूरे ड्राफ्ट पढ़कर भी हौंसला बढ़ाएंगे तो अच्छा लगेगा | जब तक पूरी न हो, शीर्षक तब तक यही समझा जाए | उर्दू का ज्ञान बहुत कच्चा है बेशक बेहद पसंदीदा भाषा है, सो गलतियों को नज़रन्दाज किया जाए | कहानी सम्राट, प्रेमचंद को मेरा प्रणाम | ) ये आज की बात नहीं है | हर दौर, हर उम्र में, इंसान अपने-परायों की दुहाई देता रहा है | दुनिया भर अपने परायों के नाम पे भेदभाव चलता रहा है | अपना घर, अपना गाँव, देश, समाज, धर्म ... अपनी इंसानियत ? लेकिन, कौन करता है ये फैसला कि कौन अपना है कौन पराया ? भगवान् अपने-पराये में इंसान को बाँट देता है, दिल जरूर साबुत बचता है, उसे दुनिया के स्वयंभू भगवान् जाति, धर्म में तोड़ देते हैं | टूटा हुआ कांच बार बार जख्मी करता है | गरीब के घर के टूटे हुए आईने की तरह न वो फेंका ही जा सकता, न रखा ही जा सकता | मिंयाँ ताहिर को इस बात का अंदाजा था, यही हुआ भी | शराफत अली ने रात को खाना नहीं खाया | जाने क्यूँ अब्बू बच्चों के जैसा बर्ताव करने लगे हैं; हर एक चीज़ पर नाराज़गी, पहले तो ऐसा न था | फातिमा ने खाना रखा, लेकिन मुँह जूठा करना

परिंदे

(कहानी किश्तों में इससे पहले कबाड़खाने में पोस्ट की जा चुकी है) शाम का धुंधलका छाने लगा था | पगडण्डी की मोड़ों पर अँधेरा पाँव पसारने लगा था | बेतरतीब उग आई झाड़ियाँ अँधेरे को पनाह देती सी महसूस होती हैं | पहाड़ों में हरे रंग की कालिमा के बीच बीच में भूरा रंग उजला लग रहा था | प्रोफ़ेसर उप्रेती चलते चलते ठिठक गए | जैकेट की जेब में हाथ डालकर अपना पसंदीदा सिगरेट ब्रांड निकाला, कैप्सटन | पीछे पीछे जमीन देखता सुधीर भी रुक गया | प्रोफ़ेसर हर एक जेब में हाथ डालकर माचिस ढूँढने की नाकाम कोशिश करने लगे | बीच बीच में हाथ झटककर नाउम्मीद भी होते | सुधीर ने माचिस की डिबिया उनकी तरफ बढ़ा दी | प्रोफ़ेसर खिसियानी हँसी हँस पड़े | "भगवान् की तलाश सबसे ज्यादा नास्तिक को ही होती है | तुम कब से माचिस रखने लगे ?" सुधीर ने सिर्फ हूँ किया, प्रोफ़ेसर के भूलने की आदत वो जानता था | "तुमको अर्चना याद है ? अर्चना सेमवाल ? शायद तुम्हारी सीनियर रही होगी |" प्रोफ़ेसर ने धीरे से कहा | सुधीर का कोई जवाब नहीं आया, बात उस तक नहीं पहुंची | "जिंदगी का गणित कुछ अजीब नहीं लगता तुम्हें ?" प्र