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प्रेमचंद के देश में

(कहानी कब तक पूरी होगी कह नहीं सकता , लेकिन अधूरे ड्राफ्ट पढ़कर भी हौंसला बढ़ाएंगे तो अच्छा लगेगा | जब तक पूरी न हो, शीर्षक तब तक यही समझा जाए | उर्दू का ज्ञान बहुत कच्चा है बेशक बेहद पसंदीदा भाषा है, सो गलतियों को नज़रन्दाज किया जाए | कहानी सम्राट, प्रेमचंद को मेरा प्रणाम | )



ये आज की बात नहीं है | हर दौर, हर उम्र में, इंसान अपने-परायों की दुहाई देता रहा है | दुनिया भर अपने परायों के नाम पे भेदभाव चलता रहा है | अपना घर, अपना गाँव, देश, समाज, धर्म ... अपनी इंसानियत ? लेकिन, कौन करता है ये फैसला कि कौन अपना है कौन पराया ? भगवान् अपने-पराये में इंसान को बाँट देता है, दिल जरूर साबुत बचता है, उसे दुनिया के स्वयंभू भगवान् जाति, धर्म में तोड़ देते हैं | टूटा हुआ कांच बार बार जख्मी करता है | गरीब के घर के टूटे हुए आईने की तरह न वो फेंका ही जा सकता, न रखा ही जा सकता |

मिंयाँ ताहिर को इस बात का अंदाजा था, यही हुआ भी | शराफत अली ने रात को खाना नहीं खाया | जाने क्यूँ अब्बू बच्चों के जैसा बर्ताव करने लगे हैं; हर एक चीज़ पर नाराज़गी, पहले तो ऐसा न था | फातिमा ने खाना रखा, लेकिन मुँह जूठा करना भी गंवारा ना किया | बस एक कोने में बैठ कर आहें भरते रहे- या खुदा! जाने नसीब में क्या बदा था जो ऐसी औलाद पैदा हुई | दीवार की ओर मुँह किये मरहूम नसीमा बानो को गाली देते रहे | ताहिर अली पुलिस महकमे में थे | आज उनका प्रमोशन हुआ था | नया ओहदा मिला था सब इंस्पेक्टर का, साथ ही तबादला भी | सहारनपुर से उन्हें और आगे पहाड़ों में भेज दिया गया | यहाँ चाल थोड़ी टेड़ी है, सो प्रमोशन इतनी हलचल पैदा नहीं करता जितना कि तबादले की खबर | तबादला कहाँ हुआ है, यही जाहिर करता है कि प्रमोशन हुआ है या डिमोशन | तो सीधे शब्दों में कहा जाए तो उनका डिमोशन हुआ है | बाप बेटे में एक ज़माने से सीधे मुँह बात ना हुई थी | ताहिर अली इस तबादले का सबब जानते थे, पंडित रामकिशोर के सुपुत्र को उन्होंने कच्ची शराब बेचते हुए पकड़ा | पंडित जी ने पूरी रात कचहरी में बिताई थी कि मियां जो चाहे दाम बताएं पर उनके लड़के को अदालत की चौखट ना देखनी पड़े | मगर ताहिर मियां उसूलों के पक्के आदमी थे, रिश्वत हराम की कमाई समझते थे | अदालत में गवाह एक एक कर मुकरते गए, ताहिर मियां बेबसी से सब देखते गए | शराफत अली बेहद नाराज हुए- और दिखाओ ईमानदारी, अरे इस मुल्क में हमें छुप छुप के सजदा करना है, क्यूँ किसी की नजरों में चढ़ते हो | ताहिर कुछ नहीं बोले, मन ही मन कहा- आप ही से सीखा है अब्बू | जवाब देते न बना | कुछ ही महीनों में तबादले का परवाना आ ही पहुंचा | ताहिर अली जानते थे कि उनसे कहाँ पर चूक हुई थी, और ऐसा भी नहीं कि वे फ़रिश्ते इंसान हों | बस उस वक़्त कुछ ऐसा जोश चढ़ा कि आगा-पीछा कुछ भी याद ना रहा |

हालात की मार इंसान को क्या बना देती है, शराफत अली इसका जीता जागता उदाहरण हैं| शराफत अली किसान थे, मगर खेती की ज़मीन गिरवी रखी पड़ी थी | ६ लोगों का परिवार और कमाने का एक ही जरिया, वो भी देनदारी में अटका हुआ था | दिन सूरज सा तेज़ ताप और रात सर्दियों सी ठिठुरती गुजरती | शराफत अली के छोटे भाई लियाक़त बी ए पास थे | नौकरियां कहीं नहीं थी, थी भी तो नाम देखकर ही आगे कोई सवाल नहीं पूछा जाता | रामधन साहूकार के पास खेत गिरवी रखे थे पर सूद चौगुने दर से बढ़ता जा रहा था | मुल्क आज़ाद हुए जमाना हो चुका था, लेकिन गुलामी के दौर अभी तक गए नहीं थे | नन्हा ताहिर १५ अगस्त की परेड देखने के लिए अब्बा से जिद करता था | अब्बा का मुंहलगा ताहिर, बहनों का दुलारा, और नसीमा बानो के जिगर का टुकड़ा | घर में खाने, पहनने को ज्यादा कुछ नहीं था, इसके बावजूद शराफत अली अंटी ढीली करके ताहिर को दिल्ली लेके जाते | लियाक़त भी साथ होते, हालांकि उन्हें अब गुस्सा जल्दी आ जाता है | छोटी छोटी बातों को भी दिल से लगा बैठते थे | इस हिन्दू मुल्क को लेकर उनके तमाम शुबहे सही साबित हुए थे | क्या करें वो इस मुल्क की आज़ादी और इसकी परेड का ? अरे उन्हें नहीं देखनी है | लेकिन बड़े भाई के सामने कुछ कहने का हौसला ना होता था | शराफत अली भी बदलती हवा से बेखबर न थे | पहले रामधन को कभी सूद न भी दो तो चल जाता था, लेकिन अब असल तक जबरिया वसूल करने तक की नौबत आने लगी थी | पंडित हरिराम के पिताजी, शराफत अली के चचा के अभिन्न मित्र थे | साथ साथ पुलिस के डंडे खाए, और भारत माता की जय का नारा बुलंद किया | लेकिन अब हरिराम के लिए उनका परिवार अछूत हो गया था | खाने के लिए बुलावे दोनों ओर से आने बन्द हो गए थे | बसों, ट्रेनों में अपने तरह के लोग ढूंढ कर उनके साथ बैठना पड़ता था | बसें कई बार तो गोल टोपी और खिचड़ी दाड़ी वालों को देखते अनदेखा कर जाती | बंटवारे के बाद जैसे किसी को किसी पर ऐतबार ही न रह गया था | जहीर मियां की दूकान पर पहले खुले में नमाज होती थी, दिन ढले काम काज के बाद जहीर मियां नेकी और ईमान पर अमल करने का मशविरा सबको देते | वो सब अब बन्द हो गया था, सिजदा अब सिर्फ चारदीवारों के अन्दर ही होता | ट्रेन में एक नन्ही परी खेल में भैया भैया करती हुई रुनझुन रुनझुन चाल से ताहिर की टोपी उससे छीन ले गयी | ताहिर भी खिलखिला रहा था | अचानक उसकी माँ क्षमा कीजियेगा कहते हुए ताहिर की टोपी हमारी गोद में फेंककर बच्ची को लगभग घसीटते हुए ले गयी | 'हे राम! किधर को नाव लगेगी हमारी' शराफत मियां बन्द लफ़्ज़ों में बुदबुदाये |

१० साल का ताहिर इतना बड़ा होकर भी आपा की उंगली पकड़ के चलता है | नज्जो आपा कभी भी कहीं पर जाती तो ताहिर को साथ ले जाती | पंडित हरिराम और रामधन की दोस्ती के चलते कालांतर में इनके सुपुत्र जगतराम और बनवारी की अभिन्न मित्रता हुई | ये दोनों दिन भर मटरगश्ती करते, सिनेमा के अश्लील गाने गाते, और कभी कभी घर से पैसे चुराकर शराब इत्यादि का सेवन करते | जगतराम नजमा पर लट्टू था, इसलिए ये दोनों मित्र अक्सर ही नजमा की ताक़ में पलक पांवड़े बिछाए रखते | कुँए की जगत पर बैठे ये दोनों अक्सर कुछ न कुछ छींटाकशी करते रहते | नज्जो,ताहिर को अपने साथ तेज़ तेज़ चाल से लेकर चलती थी | एक रोज़ ताहिर ने अब्बू को सब बता दिया | शराफत अली बेचारे क्या करते, बेटी के घर से निकलने पर पाबंदी लगा दी | दबे लहजों में शराफत अली ने इसकी शिकायत रामधन से की तो वे शांत स्वर में बोले कि लड़के जवान हैं और जवानी में बच्चे शरारत तो करते ही हैं, और फिर हमारे बच्चे ऐसे कोई गुंडे मवाली तो हैं नहीं | शराफत अली ने चुपचाप सर हिला दिया | मियां लियाक़त मगर कहाँ मानने वाले थे | एक शाम चुपके से कुँए के पास वाले बरगद के पेड़ पर चढ़ गए, और जब दोनों नवाबजादे नया फिकरा कसते हुए दिखायी दिए, वही से हनुमान जी की तरह कूद कर उन्हें चारों खाने चित्त किया | अपना रणकौशल दिखा कर मियांजी ने दोनों को खूब हाथ जमाये | खबर चारों तरफ आग की तरह फ़ैल गयी | साले विधर्मी ने दो बेचारे हिन्दू लड़कों को ऐसा मारा कि बेचारे मर ही गए थे, वो तो भला हो थानेदार हुकुमसिंह का जो वहां से गुज़र रहे थे |

हुकुमसिंह कद्दावर इंसान थे | दंगा-फसाद करने वालों से सिर्फ उनका डंडा बात करता था | दिल में नेकी और ईमान का ख्याल करते थे, मजहब जात-पात के कीचड़ से ईमान को गीला ना होने देते | वैसे तो थानेदार साहब की नजर में हर कोई बराबर था, वे पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष हैं, लेकिन अन्दर ही अन्दर उन्हें यकीन हो चला था कि ये कौम चैन से रह ही नहीं सकती | क्या जरूरत थी लियाक़त अली को ये सब करने की ? थानेदार साहब के इलाके में तकसीम के वक़्त कोई फसाद न हुआ था, जिनका उन्हें बडा गुरूर रहता था | ये बात दीगर थी कि फसाद से ऐन पहले ही उन्होंने सारे मुस्लिमों को डंडा दिखा के कह दिया था कि सालों घर के अन्दर रहियो, और कोई भी कुछ भी करने के वास्ते घर से बाहर नहीं आएगा | तो ऐसे आदर्श और धर्मनिरपेक्ष हुकुमसिंह के इलाके में गड़बड़ी करने वाले लियाक़त अली को कैसे छोड़ा जाता, जी भर के मार लगायी गयी | धर्मनिरपेक्षता बरक़रार रहे, इसके लिए दो मुसलमान हवलदारों के हाथो भी पीटा गया | शराफत अली जमानत देने के वास्ते चिरौरी के लिए फिर से रामधन के पास गए, "माफ़ करियेगा हुजुर, आपका दिल बडा हैगा|" रामधन का हाथ अपने आप मूंछों पर चला गया- शराफत मियां, आपकी बड़ी इज्ज़त करते हैं, लेकिन देखिये तो जरा कैसा मारा है पठ्ठे ने हमारे लड़के को | चार दिन से बिस्तर नहीं छोड़ा | शराफत अली की आँखों में आंसू आ गए, चार दिन से तो उनके लियाकत को खाना भी नसीब न हुआ होगा | "बाबू, अब क्या करें, हमारी ही गलती है, चाहे तो हमें सजा दिला दो, लेकिन लड़के को छुडवा दें |" रामधन बाबू कैसे भी इंसान हो लेकिन किसी को रोता हुआ नहीं देख सकते थे | पूरे दो हज़ार के मुचलके पे लियाक़त अली को छोड़ा गया | बड़े भाई की आज्ञा का सम्मान करते हुए लियाक़त ने रामधन और पंडित हरिराम से माफ़ी भी मांग ली | लेकिन मन से बैर न गया|

जगतराम और बनवारी अब और अकड़ में चलने लगे थे, अब तो थानेदार भी हमारी ही सुनता है, अब काहे का डर | लियाक़त कहीं पे भी दिख जाते तो 'ओये पाकिस्तानी, ओये पाकिस्तानी' कहते हुए ठठाकर हँसते थे | लियाक़त अपना दुखड़ा किसको रोते, नन्हे ताहिर से बतियाते रहते कि इस मुल्क से हमें इन्साफ की उम्मीद ही छोड़ देनी चाहिए, ये हमारा मुल्क नहीं है, वगैरह वगैरह | शराफत अली ने सुना तो बहुत नाराज हुए, "लियाक़त, बच्चे के दिल में जहर न भरो | क़यामत के दिन तो सब का फैसला होना ही है, तो तुम्हारा गुनाह भी खुदा की निगाह से न छुपेगा |" गाँव के मुसलमान हाल-चाल जानने के लिए आये, इनमे से मगर किसी ने आगे बढ़कर जमानत न दी थी, "क्या मियां, ये लोग तो अब हमें गलत दफाओं में जेल भेजते रहेंगे | अरे इस जुल्म के खिलाफ कोई आवाज उठाएगा या नहीं |" शराफत अली सब को चुप कराते रहे, "न भैया न, गलती हमारी ही थी | अरे हम ही ने अपनी बेटी को इतनी छूट दी रखी थी |" जुम्मे की नमाज में अक्सर लोग यही बातें करते, "शराफत मियां, क्या हाल चाल?", "चचा , क्या मिजाज़ ?" शराफत अली जानते थे कि अचानक उनके हाल-चाल क्यों इतने जरूरी हो गए | मौलाना हफ़ीज़, जो जहीर मियां के रोशन चिराग हैं, देवबंद से तालीम लेकर आये थे | अक्सर मौलाना जिक्र करते जाते "आजकल गैरमज़हबी लोग कैसे खुदापरस्त और इमानपसंद लोगों को जीने नहीं दी रहे | आज तक हमें वैसे भी काफिरों की गुलामी ही मिली है | अंग्रेजों ने इस मुल्क को इन लोगों के हाथ दे दिया | एक जिहाद की जरूरत है मुल्क में |" कोई इस बारे में कुछ नहीं कह रहा था, लेकिन हवाओं का रूख आप ही जाहिर था | बस एक चिंगारी और आग फैलनी तय थी | खुदा को भी शायद अपने बन्दों पर रहम नहीं आता है | घास के ढेर के पास आग जाने से खुदा रोक सकता है, लेकिन नहीं, वो नहीं रोकता | जाने क्यों, जब महाकाल अपनी विनाशलीला पर उतरता है, शिव को तांडव सूझता है, और विष्णु क्षीर में सोने चले जाते हैं | ताहिर अली ने नज्जो आपा को जाते देखा था, जैसे कोई बकरी जिबह के लिए ले जाई जा रही हो | उस शाम नजमा घर नहीं लौटी, और उसके बाद कभी नहीं | शराफत अली को पता था कि ये खबर अगर बाहर फ़ैल गयी तो फसादात को कोई नहीं रोक पायेगा | लियाक़त को दिल्ली भेज दिया | और गाँव भर में कहलवा दिया कि नजमा को लियाक़त के साथ भेज दिया है | दिल्ली में कोई बूढी खाला हैं, उनके पास रहेगी | लियाक़त बहुत गुस्से में थे, रोने को हुए थे | लेकिन शराफत अली बिलकुल पत्थर बन गए थे, "बेटी खो चुका हूँ, अब ताहिर को नहीं खोना चाहता मैं |" नज्जो आपा का वो चेहरा ताहिर मियां को आज भी डराता है |

-- जारी है 

टिप्पणियाँ

सञ्जय झा ने कहा…
aise pravah me likhte ho .... basiyal
bhai ke sans lene ke liye bhi waqt niklana muhal ho jata hai..........

hame jaldi poora nahi chahiye....kiston me lambe samya tak.


sadar.
Pradeep ने कहा…
नजीर जी नमस्ते...!
एक आम इंसान के संघर्षों और मजबूरियों का हृदयविदारक चित्रण किया है आपने.....आपकी कहानी के अगले भाग का इंतज़ार रहेगा......लिखते रहिये.....शुभकामनाएं .
कहानी की विषय-वस्तु और देश-काल अच्छे चुने हैं आपने। पूरा उपन्यास का मटेरियल है। जारी रखिए।
भाषा पर थोड़ा और मेहनत करें तो रचना शायद कुछ अधिक प्रभावी हो।
भुगतता हमेशा आम आदमी ही है। रोचक कहना गलत होगा, दिल को छूने वाली प्रस्तुति।
पढ़ना अच्छा लग रहा है।
ZEAL ने कहा…
.

बहुत ही मार्मिक कहानी।

ह्रदय को पत्थर करके उन्होंने सही निर्णय लिया। कोई किसी का नहीं होता। सब मौकापरस्त स्वार्थ में लिप्त होते हैं।

कौन रोता है किसी की बात पर यारों , सबको अपनी ही किसी बात पर रोना आया।

.
बहुत ही अच्छी व मार्मिक कहानी.......... आगे का इंतजार रहेगा.
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
दर्दनाक।
..आजकल ऐसे काँव-काँव कम ही पढ़ने को मिलते हैं।
hem pandey ने कहा…
पोस्ट थोड़ा लम्बी हो गयी है |
Smart Indian ने कहा…
प्रेमचन्द जी खुद पढते तो वे भी शक़ में पड जाते शायद! "सब कुछ" उनके जैसा ही है जी।
[भाई, हम तो नीरज को पढने आये थे]
Satish Saxena ने कहा…
काफी दिन से कुछ भी कांव कांव नहीं.... शुभकामनायें आपको !
एक अच्छी कहानी के सारे गुण इसमें मौजूद हैं...आपकी अगली किश्त का इंतज़ार रहेगा...

नीरज

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