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अक्तूबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

फेरी वाला

ह म ख्वाब बेचते हैं | पता नहीं कितने सालों से, शायद जब से पैदा हुआ यही काम किया, ख्वाब बेचा |  दो आने का ख्वाब खरीदा, उसे किसी नुक्कड़ पे खालिश ख्वाब कह के किसी को बेच आये | जब कभी वो शख्स दुबारा मिला तो शिकायत करता - "जनाब पिछली बार का ख्वाब आपका अच्छा नहीं रहा |"  अब अपने ख़्वाबों की बुराई किसे बुरी नहीं लगती | तुरंत तमककर बोले, "आज अगर नींद के मोहल्ले में कोई कह दे कि मेरे ख़्वाबों में वो मजा नहीं है, जायेका नहीं है, या फिर तंदुरुस्ती नहीं है, तो सब छोड़ के काशी चला जाऊं |"  ख्वाब खरीदने वाला सहम जाता है | इधर नाचीज़ देखता है कि साहब शायद नाराज हो गए, कहीं अगली बार से हमसे ख्वाब खरीदना बंद न कर दें | तुरंत चेहरे का अंदाज बदल कर कहते हैं, "अरे साहब, बाप दादों की कमाई है ये ख्वाब, उनका खून लगा है इस ख्वाब में | अपना होता तो एक बार को सुन लेता, चूं-चां भी न करता | लेकिन खानदान की याद आते ही दिल मसोस कर रह जाता हूँ |"  साहब का बिगड़ा अंदाज फिर ठीक हो जाता है | दिल ही दिल में खुद को तस्दीक मिलती होगी कि हाँ अभी भी मैं ही साहब हूँ, क्या हुआ

स्वाल (संदेसा)

अ बकी बम्बई से कमल की चिट्ठीपत्री कुछ न आयी, तो रामचरण को थोड़ी चिंता हुई | कमल हर तीन मास में एक चिट्ठी तो लिखता, कम से कम | कहीं कुछ हो तो...न न, राम राम ये पापी प्राण भी हमेशा कुछ अपशकुनी ही सोचता है | वैसे भी पिछली चिट्ठी में उसने लिखा था कि यू पी, बिहार के पुरब्यों से है बम्बई वालों को परेशानी, हम पहाड़ियों से थोड़े ही | हमें तो जैसे ही सुनते हैं कि उत्तराखंड से है, तो खुश हो के पूछते हैं, वो रिशिकेस, हरिद्वार वाला ? कभी किसी ने पूछ लिया कि जाति क्या है, और हम बताते हैं सकलानी, ब्रह्मण हैं, गढ़वाली ब्रह्मण | पंडा जी कह कर पैर छूते हैं, आज भी | रामचरण भी बहुत खुश हुआ था चिट्ठी पढ़कर | बरसों पहले पिताजी गए थे परदेस, क्या जगह थी यार वो, काफी जजमानी थी वहां पे पिताजी की | आज तक चिट्ठी भेजते हैं वो लोग | यादों पर काफी जोर डालने पर भी रामचरण को जगह का नाम याद नहीं आया, अलबत्ता ये जरूर याद आ गया कि कमल ने चिट्ठी नहीं भेजी | यहाँ बैठे रहने से तो कुछ होगा नहीं, भागवत के लड़के को पूछ आते हैं | वो भी वहीँ था बम्बई में, आजकल छुट्टी आया हुआ है | "रमेश!ऐ रमेश!!!" रामचरण ने आँग