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परिंदे

(कहानी किश्तों में इससे पहले कबाड़खाने में पोस्ट की जा चुकी है)


शाम का धुंधलका छाने लगा था | पगडण्डी की मोड़ों पर अँधेरा पाँव पसारने लगा था | बेतरतीब उग आई झाड़ियाँ अँधेरे को पनाह देती सी महसूस होती हैं | पहाड़ों में हरे रंग की कालिमा के बीच बीच में भूरा रंग उजला लग रहा था | प्रोफ़ेसर उप्रेती चलते चलते ठिठक गए | जैकेट की जेब में हाथ डालकर अपना पसंदीदा सिगरेट ब्रांड निकाला, कैप्सटन | पीछे पीछे जमीन देखता सुधीर भी रुक गया | प्रोफ़ेसर हर एक जेब में हाथ डालकर माचिस ढूँढने की नाकाम कोशिश करने लगे | बीच बीच में हाथ झटककर नाउम्मीद भी होते | सुधीर ने माचिस की डिबिया उनकी तरफ बढ़ा दी | प्रोफ़ेसर खिसियानी हँसी हँस पड़े | "भगवान् की तलाश सबसे ज्यादा नास्तिक को ही होती है | तुम कब से माचिस रखने लगे ?" सुधीर ने सिर्फ हूँ किया, प्रोफ़ेसर के भूलने की आदत वो जानता था |
"तुमको अर्चना याद है ? अर्चना सेमवाल ? शायद तुम्हारी सीनियर रही होगी |" प्रोफ़ेसर ने धीरे से कहा | सुधीर का कोई जवाब नहीं आया, बात उस तक नहीं पहुंची |
"जिंदगी का गणित कुछ अजीब नहीं लगता तुम्हें ?" प्रोफ़ेसर ने सवाल किया | सुधीर का ध्यान इस ओर नहीं था | प्रोफ़ेसर ने अपना सवाल दोहराया |
"आपको ऐसा क्यों लगता है प्रोफ़ेसर ?
"अर्चना के बारे में सोचकर लगता है | मेरी सबसे होनहार स्टुडेंट |" प्रोफ़ेसर आगे आगे चल रहे थे | पगडंडी इतनी छोटी थी कि दो लोग एक साथ नहीं चल सकते थे | बात करने के लिए लगभग चिल्लाना पड़ रहा था |
"प्रोफ़ेसर! अब वापस चलें ? हम लोग काफी दूर आ गए हैं कॉलेज से | अँधेरा भी घिरने लगा है |" सुधीर ने चिल्लाकर कहा | दोनों वापस मुड़ गए | अब सुधीर आगे आगे चल रहा था, प्रोफ़ेसर पीछे | पटकथा वही थी, बस पात्र आपस में बदल लिए | कॉलेज के मैदान में पीली रौशनी जलने लगी थी | फ़ुटबाल खेलने वाले लड़के अब होहल्ला करते हुए, एक दूसरे को गाली देते हुए अपने होस्टल की ओर जा रहे होंगे | गंगोत्री गर्ल्स होस्टल के गेट पर खड़े लड़के लड़की अब एक दूसरे से विदा लेने लगे होंगे | कॉलेज में ऑफिशियल रात हो गयी थी |
"आप कुछ कह रहे थे प्रोफ़ेसर |" सुधीर ने प्रोफ़ेसर को याद दिलाया |
"हाँ, अर्चना वापस आई है यहाँ पढ़ाने के लिए | तुम तो जानते हो अर्चना तुम्हारी सीनियर थी |"
सुधीर तब फर्स्ट इयर में आया था, जब अर्चना सेमवाल फाइनल इयर में थी | कॉलेज की जीनियस लडकी, मैकेनिकल इंजीनियरिंग में अपने बैच की अकेली लडकी | मैकेनिकल लेने वाली, बाद की कई लड़कियों के लिए वो प्रेरणाश्रोत बनी थी, मिस अर्चना | "मुझे पता है प्रोफ़ेसर लेकिन मेरी उनसे कोई जान-पहचान नहीं थी |"
"अर्चना ने प्रेम विवाह किया था, कुछ सालों में तलाक़, जब विवाह में प्रेम ही नहीं रहा |" प्रोफ़ेसर अब सुधीर के बगल में आ गए थे | "पगडण्डी पे सावधानी से कदम रखना, आगे फिसलन है |"
प्रोफ़ेसर ने एक गहरी सांस भरी, "शोभा और डॉली को अपने साथ रखने के लिए मैंने क्या क्या कोशिशें नहीं की | लेकिन शोभा गयी तो गयी, डॉली ने भी पूरा बचपन बाप के बिना गुज़ार लिया |" सुधीर चुपचाप चलता रहा, कहने के लिए कुछ नहीं था | प्रोफ़ेसर अपनी रौ में बोलते रहे, "डॉली की शादी भी हो गयी, लेकिन मुझे नहीं बुलाया | कभी कभी मिल आता हूँ उससे दिल्ली जाकर, लेकिन दिल्ली बहुत दूर है शायद अभी | वक़्त भी कितनी तेज़ भागता है न ? कल तक तो मेरी बच्ची थी डॉली, मेरी दुनिया | आज उसकी अपनी दुनिया है, जहाँ मेरे लिए कोई जगह नहीं |"
"आप, वहाँ क्यों नहीं चले जाते ? क्या रखा है यहाँ ?" सुधीर ने बेपरवाही से कहा |
"सूरज बुझते ही यहाँ रात हो जाती है | है न ?" प्रोफ़ेसर ने सिगरेट फेंक दी |
हलकी बूंदाबांदी फिर से होने लगी थी | दोनों तेज़ क़दमों से ट्रांसिट की ओर चलने लगे |
"प्रोफ़ेसर ! अभी स्वामी जी के पास गयी थी, लगा कि आप वहाँ होंगे | आज रात का खाना मेरे रूम में, ठीक ?" सामने मिस अर्चना खड़ी थी |
"क्या कर रहा है वो साला ? हमारे साथ घूमने भी नहीं आया |" प्रोफ़ेसर ने गुस्से से कहा | मिस अर्चना हँस पड़ी, सुधीर ने देखा, मिस अर्चना अभी भी सुन्दर लगती हैं |
"सुधीर! तुम भी हमारे साथ ही खाओगे |" मिस अर्चना ने आदेश के स्वर में कहा |
"मिस, मैं ...खुद..." सुधीर सकपका गए |
"अरे! सुधीर खा लो, कब तक विश्वामित्र की तरह तपस्या करते रहोगे |" प्रोफ़ेसर ने धीमे से कहा |
"क्या कहा आपने ?" मिस अर्चना ने दोनों हाथ कमर पे रख लिए |
"मैं कह रहा था कि खा लो, अर्चना खाना बहुत अच्छा बनाती है |" प्रोफ़ेसर ने शरारती मुस्कान से कहा |


खाना खाने के बाद सभी सुर-स्तव(बकौल स्वामी) का पान करने के लिए बैठ गए | सुधीर उनसे थोड़ी दूर बैठ गया, फ्रान्ज़ काफ्का में मुँह डालकर | किताबों में सुधीर की कोई दिलचस्पी नहीं है , लेकिन... | मिस अर्चना ने सुधीर से भी लेने का आग्रह किया, पर सुधीर टाल गए | बातों की कोई धुन छेड़े बिना सभी पी रहे थे | अचानक स्वामी बोले, "यार डॉक्टर, तुम कहाँ यहाँ हम लोगों के बीच चले आये | अच्छा खासा बेंगलोर में थे | पैसा भी बना रहे थे | बढ़िया कुलीन परिवार, शादी वादी करे रहते और फिर ..." बोलते बोलते रुक गए | सुधीर के लिए ये सवाल कभी आया न हो ऐसी बात नहीं थी | बस सुधीर को खुद कभी ये कोई सवाल नहीं लगा, "माँ ने शादी कराने के लिए काफी जोर लगाया था | तीनों भाई अपनी गृहस्थी में खुश हैं | फिर माँ चल बसी तो उस दुनिया के साथ जो ताना बाना था वो भी नहीं रहा | ऐसे ही एक दिन यहाँ चला आया |" ख़ामोशी एक बार फिर सबके मन में पसर गयी थी | बाहर टिन शेड पर बारिश की धीमी धीमी टप टप सुनी जा सकती थी | आज सुधीर का जन्मदिन था, माँ थी तो जन्मदिन भी याद रहता था | अब तो पता ही नहीं चलता और गुज़र जाता है | प्राग से कभी कभी भैया भाभी का फोन आ जाता है, साथ में छोटा अंशुल भी होता है |
"जिंदगी का गणित भी अजीब है प्रोफ़ेसर !" मिस अर्चना पहली बार बोली, सुधीर ने चौंककर प्रोफ़ेसर की ओर देखा, प्रोफ़ेसर धीमे से मुस्कुराये | अर्चना ने सिप लेकर अपनी बात जारी रखी, "जहाँ से नफ़ा होने की उम्मीद होती है, वहाँ से नुक्सान, है न प्रोफ़ेसर ?" प्रोफ़ेसर बन्द खिड़की को घूर रहे थे, "लाइफ इस व्हट हैपंस टु यू व्हाइल यू आर बिजी मेकिंग अदर प्लान्स" | स्वामी हल्के से हँस दिए, "प्रोफ़ेसर साला, हमेशा कुछ न कुछ फिलोसोफी मारता है | किताबें पढ़ पढ़ के पागल हो गया है |" सुधीर जानना चाहता था कि मिस अर्चना क्यों इस जगह पर चली आई, पूछने में संकोच हुआ तो नहीं पूछा | प्रोफ़ेसर ने कुछ कहा तो था कि तलाक़ लिया था मिस अर्चना ने, लेकिन फिर यहाँ आने की क्या जरूरत थी | सुबह की बरसात होने से धूप की उम्मीद बेमानी तो नहीं होती | जिंदगी एक बार फिर से भी तो शुरू हो सकती है | सपनों से हार जाना भी जीवन का एक अहम् पड़ाव है, सफ़र फिर भी जारी रहता है |
"मीरा देहरादून जाना चाहती है, जाह्नवी को लेकर |" स्वामी ने अपना सर झुका लिया |
प्रोफ़ेसर ने धीमे से पूछा "तुम क्यों नहीं चले जाते उनके साथ ?"
स्वामी ने बदले में कुछ न कहा | प्रोफ़ेसर उप्रेती ने शोभा को ऐसे ही जाते देखा था | शोभा, फिर कभी वापस नहीं आई | डॉली भी बदलकर अनुपमा हो गयी | दिल्ली विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की प्रोफ़ेसर, मिसेज़ अनुपमा कोहली | "चलो खैर, देहरादून जाकर जाह्नवी की एडुकेशन ठीक से हो जायेगी, फ्यूचर अच्छा रहेगा |" प्रोफ़ेसर ने सिगरेट जलाते हुए कहा | "आपके घर से कोई पत्र नहीं आया, मिस अर्चना ?" स्वामी ने पूछा |
"नहीं" अर्चना एक बेबस हँसी हँस दी, "बाबूजी और छोटे भाई ने जो कहा था, पूरा किया | पिछले दिनों माँ की चिट्ठी आई थी, बाबूजी की तबियत खराब होने का जिक्र भी था |"
"तुम्हें जाना चाहिए था |" प्रोफ़ेसर ने खांसते खांसते कहा |
"पी एस में भाई ने लिखा था कि आने की कोई जरूरत नहीं है, पोस्ट करते वक़्त लिखा होगा |" अर्चना हाथ में पकडे ग्लास को काफी देर तक देखती रही, "धमकी के स्वर में अपने साइन भी किये थे |"
बाहर बारिश तेज़ हो चली थी, टिन शेड की टप टप अब संगीत न रहकर एक कुंठा हो चली थी | लैम्प की बत्ती अचानक तेज़ हो गयी थी | प्रोफ़ेसर ने आगे बढ़कर उसे थोड़ा धीमा किया | अर्चना के अन्दर भावनाओं का आलोड़न जारी था, "बाबूजी शायद न बचें, फिर उसके बाद भाई घर अपने नाम करना चाहेगा | आखिर उसके बीवी-बच्चे हैं, घर-गृहस्थी है | सब कुछ जानते हुए भी बाबूजी उसके नाम कर देंगे | पुरुषप्रधान समाज की हकीकत यही है | स्त्री पुरुष बराबरी, भेदभाव नहीं, से सब बातें सिर्फ घर से बाहर ही अच्छे लगती है | जिंदगी के गणित का एक अजीब सा समीकरण |" कॉलेज के शिवमंदिर से टन...टन की आवाज आ रही थी | शाम की आरती के बाद पुजारी रात को २ किलोमीटर दूर जंगल में अपने घर जाएगा | सर्दी , गर्मी , बरसात हो लेकिन पुजारी का नियम नहीं टूटता | सन्यास उसने लिया नहीं है, लेकिन अकथ, अदृश्य, अनाम को लेकर ऐसा पागलपन एक गृहस्थ में बिरले ही देखने को मिलता है | स्वामी ने हाथ जोड़कर हरिओम का घोष किया |
"बाबूजी ने बचपन से दिल्ली की लड़की बनाके रखा | पिछ्ड़ेपंथी से कहीं दूर, मोडर्न दुनिया में | इस दुनिया में लड़के -लड़कियों के बीच कोई फर्क नहीं है | दोनों जींस पहनते हैं, बाल कटाते हैं, फर्राटेदार अंग्रेजी में बात करते हैं | इंजीनियरिंग में एडमिशन के टाइम पर उन्हें अपना गाँव याद आया, गाँव से मेरा बर्थ सर्टिफिकेट बना लिया गया | फिर इंजीनियरिंग में विक्रांत से प्यार | एक साल के करीयर को समर्पित किया, फिर शादी | विक्रांत के रूप में सब कुछ मिला, और भी बड़ा परिवार, और भी बड़ा घर, और और भी बड़े बुद्धिजीवी | विक्रांत के साथ हर तरह से खुश थी मैं, मेरी मनमर्जी चलती थी | फिर वही, जिसपे खबरें बनती हैं; अविश्वास, शक, रोज़ रोज़ के झगड़े | मेरी जॉब छुड़वा दी गयी,फिर एक दिन चरित्रहीनता का आरोप लगाकर तलाक़ की अर्जी डाल दी गयी | अदालत में बैठकर सुनती रही कि मेरे अफ़ेयर किस किस से हैं | बदले में मेरे वकील ने भी विक्रांत के ऐसी ऐसी लड़कियों से रिश्ते निकाले, जिनके नाम मैंने भी नहीं सुने थे | तलाक़ तो खैर लेना ही था, लेकिन होड़ लगी थी कि कौन सामने वाले को ज्यादा पतित और स्खलित साबित कर सकता है | वो लोग जीत गए |" अर्चना के चेहरे पे सख्ती आने लगी थी | प्रोफ़ेसर फिर से बन्द खिड़की के बाहर देखने लगे, काले शीशे को, जैसे जानते हों कि सच और काला होने जा रहा है | अर्चना ने एक सिप और भरा, "अदालती कार्यवाही में मेरे वकील ने वो सब गलत साबित किया , लेकिन अब कोई फ़ायेदा नहीं था | कुछ दिन माँ के आँचल में चुपचाप सोई कुछ घूरती रही | एक दिन मेरा सारा सामान मेरे घर वापस पहुंचा दिया | उस दिन महसूस हुआ मानो दलदल में गिरी हुई हूँ | बस अब कोई रास्ता नहीं है, संघर्ष से और भी हार मिलेगी |"
"आपके घर वालों ने तो आपको सपोर्ट किया होगा |" सुधीर ने पहली बार मिस अर्चना से सीधा संवाद किया |
"भाई को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा पर आंच आती दिखने लगी थी | हर एक बात में टोकाटोकी होने लगी थी | कभी कभी मुँह पर कह भी दिया जाता कि तुम तो हमें मत ही समझाओ | अपने आस पास बैठे बुद्धिजीवियों की नस्ल को गिद्धों से भी नीचे गिरते हुए देखा मैंने | कॉलेज में नियुक्तियां निकली तो माँ ने अपने अकाउंट में छुपाये हुए पैसे निकालके मुझे रोते हुए विदा किया |" अर्चना की आँखों में एक आँसू छटपटा रहा था |
"नफरत होती है ऐसे लोगों से |" प्रोफ़ेसर अपने आप में बड़बड़ाए |
"नफरत मुझे माँ से होती है | क्यों, इस सब के बीच में बेचारी सी बनी रही, लाचार बनी रही| अरे लोगों के खिलाफ मेरा पक्ष नहीं ले सकती थी, तो लोगों के साथ ही हो लेती | मेरे चरित्र को जब मेरे अपने ही बाजार में बेच रहे थे, तो वो भी कुछ नफ़ा कमा लेती | क्यों दोनों तरफ से हिस्सेदार बनना ?"
"अर्चना! उन्होंने तुम्हें यहाँ भेजा है, सबके विरोध के वावजूद |"
"यही तो ग़लतफ़हमी है स्वामीजी, उन्होंने मुझे वहाँ से भेज दिया | जो काम भाई, बाबूजी सारी लानत-मलानत भेजने के बाद भी नहीं कर सके, उन्होंने मुझे ममता के धोखे में रखकर कर दिया |"
"तुम अभी बहुत निर्दयता से आकलन कर रही हो अर्चना, वक़्त के साथ शायद तुम्हें ... |" प्रोफ़ेसर जानते थे वक़्त के साथ भी धारणाएं बदलनी बहुत मुश्किल होती हैं | आखिर यही था तो वक़्त उनके रिश्तों में जमी बर्फ क्यों नहीं पिघला पाया |
"वैसे आप सही कहते हैं प्रोफ़ेसर |" अर्चना के चेहरे पर सायास मुस्कान थी, "शान्ति और नीरवता के इस शमशान में, गिद्धों की आमद मंदिरों से कम है |"
"प्रोफ़ेसर! डॉली की तरफ से कोई ख़त आया ?" स्वामी ने एक हलकी झिझक के बाद पूछ लिया | समंदर में थोड़ा सा नमक और डालने से समंदर नहीं बदलेगा | खारापन जुबान पर अभी ताजा ही था |
"फोन आया था | एक बेटा हुआ है | कह रही थी, पापा, माथा बिलकुल आप का लगता है |" प्रोफ़ेसर बच्चों जैसे खुश हुए, लेकिन एक वक़्त के बाद हँसी को जबरन खींचा भी तो नहीं जाता, "फिर कहने लगी कि, पापा! पूछोगे नहीं माँ पर क्या गया है ?" सुधीर चौंका, लेकिन शांत बैठा रहा | मिस अर्चना अपने ग्लास को ध्यान से देखती रही | स्वामी खिड़की की ओर देखने लगे, जहाँ थोड़ी देर पहले तक प्रोफ़ेसर देख रहे थे |


अगले दिन दरवाजे पर हुई थाप से सुधीर यकबयक चौंक कर उठा | दरवाजा खोला तो प्रोफ़ेसर और मिस अर्चना खड़े थे | "जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई हो भई डॉक्टर " प्रोफ़ेसर ने हाथ आगे बढ़ाया | सुधीर अभी उन्नींदा सा ही था, "लेकिन आप लोगों को कैसे पता चला ?" प्रोफ़ेसर एक ओर को हट गए | "हमें तो हमारी स्लैम बुक से पता चला है |" मिस अर्चना ने हाथ आगे बढ़ा लिया | सुधीर ने बढ़कर हाथ मिलाया,"मिस! इतनी पुरानी चीजें आपने रखी हुई हैं ? और आपको मेरा जन्मदिन भी याद है उसमे ?" सुधीर को याद आया कि बहुत सारे जूनियर मिस अर्चना के काफी प्रशंसक थे | और उन्होंने ही मिस अर्चना से अनुरोध करके उनकी स्लैम बुक भरी थी | "तुम भी क्या मिस मिस लगाये रहते हो यार |" प्रोफ़ेसर ने जैकेट की जेब में हाथ डाल लिए थे | सुधीर की तन्द्रा टूटी, ध्यान आया बरामदे में ठंडी हवाएं चल रही हैं | "अन्दर आ जाइए |" सुधीर ने एक ओर हटते हुए कहा, "आदत नहीं जाती सर, शुरू से ही मिस कहते रहे हैं |" मिस अर्चना और प्रोफ़ेसर उप्रेती अन्दर आकर बिस्तर पर बैठ गए (घर में कुर्सियां नहीं है) | "हाँ सुधीर ! और तुम्हारा वो हाँजी हाँजी करना भी | क्या पंजाबियों की तरह हिंदी बोलते हो |" सुधीर खिसिया गए, "ठीक है मिस , अब से नहीं बोलूँगा |" प्रोफ़ेसर ने दो दिन पुराना अखबार उठा लिया, "सुधीर तुम्हारा कमरा तो बाकी ट्रांसिट से भी ठंडा है | अरे यार, कुछ बंदोबस्त करो हीटर वगैरह का |" अर्चना ने गंभीर भाव से कहा - "अरे! दासगुप्ता सर को बोल दो , बोयज़ होस्टल से जब्त कर लेंगे तुम्हारे लिए भी |" प्रोफ़ेसर और सुधीर हँसने लगे, अर्चना ने दोनों की ओर देखा, "अरे सही में |" प्रोफ़ेसर उप्रेती दासगुप्ता को बेहद पसंद करते थे , "दासगुप्ता थोड़ा शरारती सा है, लेकिन अच्छा टीचर है |" सुधीर ने उनकी ओर अविश्वास से देखा | "अरे मानों भई !" प्रोफ़ेसर सुधीर का असमंजस समझ गए थे, "दासगुप्ता साला अपनी इमेज सही नहीं रखता , पता नहीं क्यूँ |" "दासगुप्ता सर ने प्रेम विवाह किया है न ?" अर्चना ने जिज्ञासा रखी | "हाँ , मिस आपके ही बैच की लड़की हैं, कंप्यूटर साइंस ब्रांच से हैं, मिस इंदिरा सेन |" "वो मिस नहीं, मिसेज हैं अब |" प्रोफ़ेसर ने टोका | "इंदिरा सही स्टुडेंट थी सी एस के टॉप लोगों में से थी | लेकिन टीचर से शादी ..." अर्चना ने अपने शब्दों को रोक दिया | "दासगुप्ता ने सारा मामला बहुत अच्छी तरह संभाला था | उसके घर से मंजूरी नहीं मिली थी , हम लोगों ने उसकी शादी करवाई थी | स्वामी ने लड़की का कन्यादान किया था |" प्रोफ़ेसर हौले से हँसे, "तो आज क्या करने का प्लान है भई?" सुधीर ने बारी बारी से दोनों की ओर देखा, कुछ समझ नहीं आने पर कह दिया, "कुछ नहीं सर |" "अरे ऐसे कैसे कुछ नहीं | आज कुछ मीठा तो बनाना होगा | मन्दिर में प्रसाद चढ़ाना चाहिए |" मिस अर्चना अपनी लय में बोलती जा रही थी | सुधीर को माँ का स्मरण हो आया | हर जन्मदिन पर फ़ोन करके ये दोनों चीजें प्राथमिकता में गिनवाती, मन्दिर में प्रसाद, घर पर मीठा | इन सब से जिंदगी की कड़वाहट शायद थोड़ी कम होती हो , सुधीर ने मन ही मन सोचा | "अरे कहाँ खो गए ?" अर्चना ने सुधीर के कंधे पर हाथ रखा, "मैं कह रही थी कि इन सबसे जिंदगी में थोड़ी मिठास घुलती है |" सुधीर हँस दिए, लड़कियों की आदत एक जैसी होती हैं, माँ जैसी | "तुम्हारा जन्मदिन भी बड़े अच्छे दिन आया है, आज मुझे मन्दिर जाना है | तुम भी चलो |" मिस अर्चना के स्वर में सुधीर को हमेशा एक आदेश का भान रहता है | "नहीं , मिस ... मन्दिर के लिए तो मुझे माफ़ ही करो " सुधीर ने कहा | "अच्छा ? क्यूँ भई ?" प्रोफ़ेसर ने पूछा जिसका सुधीर ने कोई जवाब नहीं दिया | "तुम आखिरी बार मन्दिर कब गए थे ?" मिस अर्चना ने पूछा | "याद नहीं पड़ता | ऐसा नहीं कि भगवान से कोई दुश्मनी हो , बस वहाँ अन्दर रहा नहीं जाता |" सुधीर ने अपना बचाव किया | "ठीक है , फिर तुम अन्दर मत आना , बाहर से ही पूजा करना , वैसे भी यहाँ मन्दिर में एक साथ सिर्फ दो ही आदमी अन्दर रह सकते हैं | तुम अन्दर आ जाओगे तो पुजारी को बाहर खड़ा होना पड़ेगा |" मिस अर्चना मुस्कुरायी | सुधीर ने अब प्रतिरोध करना छोड़ दिया |

आज माता के मन्दिर की ओर जाने वाले काफी लोग ट्रैकरों का इंतज़ार कर रहे थे | कुछ लोग पैदल ही चलने लगे | "सुधीर ! पैदल चलें ? तुम चल लोगे ?" अर्चना ने सुधीर की ओर देखा | आसमानी लिबास में बेहद हल्के रंग का दुप्पटा हवा में उड़ रहा था | "हाँ जी | हम तो कॉलेज टाइम में पौड़ी तक पैदल ही निकल जाते थे |" सुधीर मुस्कुराया | "अच्छा ?" अर्चना को आश्चर्य हुआ | माथे पे उड़ रही अलकों को कान से पीछे करती, और दूसरे हाथ से दुप्पटे को उड़ने से बचाती अर्चना को देखकर सुधीर ने मदद का प्रस्ताव किया | "मिस, आप चाहें तो मैं आपकी ये पूजा की डलिया पकड़ लूँ ?" सुधीर ने हाथ आगे बढ़ाया | "ओह , श्योर , थैंक यू |" मिस अर्चना ने डलिया सुधीर की ओर बढ़ा दी | जल्दी में सुधीर की उँगलियाँ उनकी उँगलियों से छू गयी | "ओह माय ... तुम्हारी उँगलियाँ इतनी ठंडी क्यूँ है ? अरे खून नहीं है क्या शरीर में ?" अर्चना ने सुधीर को झिड़का , "देखो, यहाँ सही से खाना खाया करो , नहीं खाओगे तो वजन गिरने लगेगा |" "जी मिस " सुधीर से कुछ कहते न बना | "अपने हाथ जैकेट के अन्दर रखो " अर्चना ने दुबारा आदेश दिया | सुधीर ने चुपचाप बाँया हाथ जेब में रख लिया , और दाहिने की उँगलियाँ भी जेब में डाल ली | सामने एक नवविवाहिता चल रही थी, उसकी बाजुओं तक भरी लाल चूड़ियाँ बार बार खनक रही थी | उसी के आगे एक प्रौढ़ा थी, जो संभवत उसकी सास थी | जरा सा हट कर चलता युवक उसके कान में कुछ कहता और वो हौले से हँस देती | युवक ने थोड़ा सा पीछे हटकर, युवती से डलिया अपने हाथ में ले ली, और दाहिने हाथ से युवती का हाथ कसकर पकड़ लिया | वो थोड़ा कसमसाई , लेकिन फिर दाहिना हाथ भी उसने अपने बाँयें हाथ से मिला लिया | "तुम्हारा शादी करने का कोई इरादा भी है या ... ?" मिस अर्चना ने सुधीर से पूछा | सुधीर झेंप गए , मिस ने उन्हें सामने चल रहे विवाहित युगल को देखते हुए पकड़ लिया है शायद | "पता नहीं मिस |"
"कभी कोई लड़की पसंद नहीं आई ?"
"आई थी मिस" सुधीर को अपने बेबाकी पर खुद भी आश्चर्य हुआ |
"फिर?"
"बस , जब तक मैं इंजीनियरिंग पूरी करता उसकी शादी तय हो गयी थी |"
"ओके !"
"हमारे यहाँ तो आप जानती ही हैं मिस कि एक बार लड़की की शादी तय हो गयी , इसका मतलब कि शादी हो ही गयी | फिर कुछ कहना सुनना बाकी नहीं रह जाता |"
"हूँ ..." मिस अर्चना अपने पैरों की ओर देखने लगी | पहाड़ी का ये मोड़ अन्दर की ओर था इसलिए हवा लगनी बन्द हो गयी थी , लेकिन काफी ठंडा और प्रकाश भी थोड़ा कम था |
अचानक से एक जीप उनके बगल में रुकी उन्होंने मुड़कर देखा तो दासगुप्ता जीप से मुँह बाहर किये दिखाई दिए , "अरे मैडम , अरे सुधीर , आओ आओ, जगह है थोड़ी इसमें |" फिर मुड़कर अपने साथ वाले लोगों से विनय की , "भाईसाहब ! आप कृपया पीछे बैठ जाएँ |" एक साधारण सा ग्रामीण इस विनम्र निवेदन से पानी पानी हो गया | जल्दी से उतर कर पिछली सीट पर चला गया | दासगुप्ता और उनकी पत्नी एक ओर , एक आदमी दांयी ओर बैठा था | सुधीर और मिस अर्चना बीच में एक आदमी की सीट पर बैठ गए | इंदिरा, दासगुप्ता सर की पत्नी , अर्चना से बातचीत का सिलसिला बढ़ने लगी | पुरानी बातों, और यादों को ताजा करते, और हँसते रहते | दासगुप्ता बोले , "हाँ अर्चना, कैसा लग रहा है तुमको यहाँ ?"
"सर, पूरे चार साल यहीं गुज़ारे थे, कोई पहली बार थोड़े ही आई हूँ |"
"हाँ सो तो है... लेकिन फिर भी, काफी चेंजेज भी तो हुआ है इधर |"
"नहीं सर, कुछ भी तो नहीं बदला है | वही सर्दियाँ हैं, वहीं हम हैं |"
"पिछले साल हम यहीं रुके थे, बर्फ पड़ी थी, इस साल भी पड़ेगी न ?" इंदिरा ने दोनों हाथो को रगड़ना शुरू कर दिया जैसे पिछली बर्फ़बारी की याद आने से ही ठण्ड ज्यादा तेज़ लगने लगी हो |
"अभी फिफ्थ सेमेस्टर के एक्साम बाकी हैं , तब तक तो हम यहीं है |" दासगुप्ता ने मुस्कुराके इंदिरा की ओर देखा |
"इस बार भी यहीं ... रहते हैं न ..."इंदिरा साफ़ तौर पर नाराज दिख रही थी |
"देखेंगे" कहकर दासगुप्ता सर पहाड़ियों पर उग रहे सूर्य को देखने लगे |


सुधीर बाहर खड़े हो गए | मिस अर्चना ने अन्दर बुलाया तो नहीं आये | "भगवान को नहीं मानते हो क्या ?" मिस अर्चना ने दबी जुबान में गुस्से से कहा | "मानता हूँ |" सुधीर ने जवाब तो दिया लेकिन मन की कशमकश नहीं ख़त्म कर पाए | हाथ जोड़ दिए , लेकिन मन या आँखों में कोई भाव प्रकट न हुआ | अर्चना ने दुपट्टे का एक छोर सर पे रख लिया, पूजा का नारियल गर्भ-गृह में बैठे पंडित जी को दिया | धूप के तीन चार बत्तियां बनाकर जला लीं | अगरबत्तियां और धूप पहले से ही काफी जली हुई थी, फिर और धुंआ करके क्या... | सुधीर हाथ जोड़े हुए सोचते जा रहे हैं | माँ होती तो हाथ पकड के मन्दिर के अन्दर लेके जाती | उस दिन भी जब मैं गुस्सा होता था, किसी चीज को पाने की जिद करने के लिए | मेरा सबसे आसान तरीका होता था रोते रोते सड़क पर लेट जाना | माँ हँसती, कहती ठीक है लेकिन मन्दिर के अन्दर तो चल ले पहले | मन्दिर के अन्दर ही एक घर में बहुत बूढ़े बाबाजी रहते , जिनकी उम्र मुझे सौ साल की लगती | वे मुझे खूब सारे फल खाने को देते और मैं उनके मन्दिर में कहीं भी घूम सकता था | बस बदले में मुझे मन्दिर में आये लोगों को गीता सार सुनाना होता | मन्दिर से बाहर आते आते मैं भूल जाता कि मैं किस चीज़ के लिए जिद कर रहा था, और माँ का हाथ थामकर उछल उछल कर एक के बाद एक बातें बनाने लगता | माँ, भैया कहता है कि ... "प्रसाद ले लो ! कब तक हाथ जोड़े खड़े रहोगे ?" अर्चना की आवाज सुधीर के कानों में पड़ी | सुधीर की तन्द्रा टूटी, लोग जाने की तैयारी में हैं | सुधीर ने प्रसाद लेने के लिए हाथ बढ़ाया | "अरे मुझसे नहीं , पंडित जी से ले लो | फिर तुम्हें सबको बाँटना है, आज तुम्हारा जन्मदिन है न !

सुधीर अपने कमरे में लेटे हुए छत को घूर रहे थे | दोपहर का वक़्त होने के बावजूद कमरे में अँधेरा था , सर्दियों की वजह से दीवारों में सीलन थी | छत पर पानी से बने हुए पैटर्न देखते रहे | बाल सफ़ेद होने लगे हैं क्या ? उसने उठकर आइना ढूँढने की कोशिश की | बैग के अन्दर वाले हिस्से मे से आइना निकालकर देखा | कमरे की लाईट जलाई, ओह लाईट तो कल रात से ही गायब है | खिड़की के पास ले जाकर आईने में कुछ खोजने जैसे लगा | नहीं , बाल सफ़ेद नहीं हुए हैं , सुधीर ने आईने को चेहरे के दायें बाएं घुमाया | शेव भी नहीं की है, लेकिन अभी गरम पानी कहाँ से मिलेगा | दुबारा जाकर बिस्तर पर लेट गए | कुछ सोचने के बाद एकदम से उठे और गैस पर गरम करने के लिए पानी चढ़ा दिया | पुरानी डायरी खोल के पढ़ने लगे जो आदमी, समझिये उसे पढ़ के कुछ और बूढ़ा होता जा रहा है | शायद वाकई मैं बूढ़ा हो रहा हूँ , सुधीर ने मन ही मन सोचा | ये डायरी एक ज़माने से पढ़ी नहीं , लेकिन हर जगह इसे अपने साथ रखकर घूमता हूँ | इसे फेंक देना चाहता हूँ , लेकिन पुरानी चीज़ों से पता नहीं लगाव क्यूँ होता जाता है | छः दिसंबर बयानवे, पौड़ी , आज मैंने श्रद्धा को फ़ोन किया | सोलह दिसंबर बयानवे, श्रद्धा को फ़ोन किया | टेड़े मेड़े अक्षरों में कुछ कुछ गूढ़ जानकारी सी लिखी हुई थी | तीस जनवरी तेरानवे, श्रद्धा के घर फ़ोन किया , बात नहीं हो पायी | सुधीर ने डायरी को टेबल की ओर उछाल दिया | ओंधे मुँह गिरने से पहले डायरी के बीच से एक छोटा सा कार्ड गिर गया | तीन दिसंबर बयानवे , हैप्पी बर्थडे टु माय डियरेस्ट फ्रेंड , फ्रॉम श्रद्धा |


"जब मैं छोटा था तो सोचा करता था कि पहाड़ों में कहीं मेरा एक छोटा सा घर होगा , जिसमे मैं दिन भर बैठा हुआ विओलिन बजाता रहूँगा |" प्रोफ़ेसर हल्के से हँसे, हाथ सर के पीछे ले जाकर बोले - "अब देखो, घर तो नहीं लेकिन सरकारी कमरा है मेरे पास , जिसमे दिन भर मैं अपने अकेलेपन की विओलिन बजाता रहता हूँ |" सुधीर चुपचाप इस एकालाप को सुनता रहा | धूप खिली हुई थी | तीन दिन हलकी बारिश के बाद आज धूप निकली थी | "यार डॉक्टर ! जीने का मजा तो अकेलेपन में है | है नहीं ?" प्रोफ़ेसर ने धूप में आँखे मिचमिचाते हुए कहा | "जी सर !" सुधीर ने कहा | "रेगिस्तान में चलते रहो , धूप में , न किसी मंजिल की तलाश न कहीं कोई पड़ाव , बस एक सफ़र हो | सफ़र भी ऐसा जिसका कोई नतीजा नहीं निकलना हो , बस एक सफ़र हो , ना आगे कुछ , ना पीछे |" प्रोफ़ेसर ने हथेलियों को आँखों के ऊपर रख लिया , "धूप में आँखें बन्द करो तो नारंगी रंग दिखायी देता है | जोर से पलकों को दबाओगे तो वही रंग काला पड़ जाता है |" आँखें खोलकर उन्होंने गहरी साँस ली | "वो सामने चौखम्भा है न ?" उन्होंने ऊँगली से इशारे किया | सुधीर अनमने भाव से उनकी बात सुन रहा था | अचानक मुड़ कर देखा, बोला "हाँ" | "कभी चलें क्या वहाँ पे ?" प्रोफ़ेसर ने पूछा | सुधीर हल्के से मुस्कुरा दिया | "अरे वाकई ! चलते हैं कभी | कितनी खूबसूरत जगह है वो |" "कब चलना है ?" सुधीर ने पूछा | "यार ! चलते हैं कभी, मई जून में | अगले सेमेस्टर एंड पे" प्रोफ़ेसर पूरे विश्वास से बोले | जेब से सिगरेट निकाली ही थी, कि सुधीर उनकी ओर देखने लगा, " प्रोफ़ेसर! एक दिन में दो , केवल | उससे ज्यादा नहीं |" प्रोफ़ेसर मुस्कुराये - "अरे यार ! आज मौसम अच्छा है |" थोड़ी देर सोचकर बोले , "स्वामी को मत बताना , नहीं तो साला बखेड़ा खड़ा करेगा |" अचानक प्रोफ़ेसर जैसे सोते से जगे, "आज तारीख क्या है ?" "पंद्रह दिसंबर" सुधीर ने हाथ में पकडे हुए अख़बार के उपरी हिस्से में तारीख देखकर उसमे दो जोड़कर बता दिया | "अरे यार ! कल तो मेकैनिकल का जरूरी पेपर है |" ट्रांसिट की ओर जाती सड़क पर दो लड़कों को टहलते हुए देखा , "अरे सुनो ! मेकैनिकल के किसी लड़के को भेज देना यहाँ , जल्दी |" वे दोनों उलटे कदम वापस होस्टल की ओर चल दिए |

मीरा (स्वामीजी की पत्नी) और मिस अर्चना बैठे हुए बात कर रहे थे | प्रोफ़ेसर उप्रेती के आते ही दोनों चुप हो गए | "स्वामी कहाँ है ?" प्रोफ़ेसर ने पूछा | "आज सुबह से ही मुझसे नाराज हैं | मुझे लगा कि शायद आपके पास गए होंगे |" मिसेज स्वामी ने जवाब दिया | " अरे मेरे पास तो नहीं आया |" प्रोफ़ेसर कुछ सोचते हुए वापस जाने लगे | "अंकल , पापा बहुत गुस्से मे थे |" जाह्नवी ने पास आकर कहा | "अरे तेरा पापा तो ऐसे ही नाराज होता रहता है | अभी तेरे से भी छोटा है वो |" प्रोफ़ेसर ने उसकी नाक को छूकर कहा | जाह्नवी हँसने लगी, घर के अन्दर भाग गयी | "सर , जाह्नवी की पढाई भी रुक रही है यहाँ | देहरादून में कुछ दिन मम्मी के पास जाना चाहती हूँ , उसके बाद जाह्नवी को बोर्डिंग स्कूल में डाल देती |" मीरा अपनी भड़ास निकाल रही थी , स्वामी ने जरूर ये सब सुनने से मना कर दिया होगा, प्रोफ़ेसर ने मन में सोचा | "ठीक है ! मैं देखता हूँ | शायद मेरे ही रूम पे गया होगा वो |" प्रोफ़ेसर ने मीरा को तसल्ली देने की कोशिश की | "मुझे जाह्नवी के करियर की बेहद चिंता होती रहती है | अगर यहाँ रहेगी तो ..." प्रोफ़ेसर जाना चाहते थे लेकिन मीरा की बातें मानों आज ही ख़त्म होना चाहती हों, "आपने सही किया था सर, जो डॉली को पढ़ने के लिए दिल्ली भेज दिया था | सुना है डॉली अब बाहर जाने वाली है |" प्रोफ़ेसर को अचानक अपनी साँस फूलती सी लगी, वहीं सीढ़ी पर बैठ गए - "हाँ ! जर्मनी जा रही है, दो महीने के लिए | कुछ रिसर्च फेलोशिप का मामला है | " मीरा "बहुत अच्छा है | बहुत तरक्की मिली है बेटी को | हमारी जाह्नवी जितनी थी , जब गयी थी न ? उसका चेहरा अभी भी याद आता है |" प्रोफ़ेसर जल्दी से बोले - "मीरा , मैं अभी स्वामी को ढूंढ के लाता हूँ | तुम बैठो |" तेज क़दमों से बाहर निकल गए |

कॉलेज होस्टल से पीछे के रास्ते से सीधा सीधा उतर जाओ तो सामने कई छोटे मंझोले खेत दिखाई देते हैं , जो जानवरों को चराने के ज्यादा काम आते हैं | उसी पर बनी हुई पगडण्डी चलते हुए एक छोटी पहाड़ी के पास से गुजरती है | दूर, हॉस्टल से ये पहाड़ी एक मेंढक के मुँह जैसी लगती है | लोग इसे मेंढक पहाड़ी कहते हैं | इसी पहाड़ी के दूसरे छोर पर, जहाँ गहरी खाई है, स्वामी बैठे हुए दिखायी दिए | प्रोफ़ेसर चुपचाप जाकर उनके साथ बैठ गए | " प्रोफ़ेसर यार ! हम शापित हैं , हीदन देवताओं का सोना चुराने वाले समुद्री लुटेरों की तरह | न हम जी सकते हैं , न मर सकते हैं | है न ?" स्वामी प्रोफ़ेसर की ओर देखकर मुस्कुराये | प्रोफ़ेसर ने आश्वस्त भाव से स्वामी की बात को सुना, जवाब देना ही चाहते थे कि यकायक चुप हो रहे | धीरे से इतना ही कहा, "स्वामी |
"पहले डॉली, अभी जाह्नवी | हम लोग, ऐसा लगता है जैसे विस्थापित लोग हैं | अतीत से विस्थापित, भविष्य में हमारे लिए कोई जगह नहीं |"
"क्या तुम सेल्फिश होना चाहते हो ?" प्रोफ़ेसर ने पूछा |
स्वामी ने मुँह फेर लिया, सामने पहाड़ियों पर बादल उतर आये थे | आँखों में धुंध गहराने लगी थी, "प्रोफ़ेसर , तुम रिटायर कब होने वाले हो ?"
"दो या तीन साल में, क्यूँ?" प्रोफेसर खुश हुए कि स्वामी ने विषय बदल दिया है |
"नहीं , मैं सोच रहा हूँ कि तुम उसके बाद क्या करोगे ?"
प्रोफ़ेसर उप्रेती से कुछ कहते न बना, ज़मीन पर उगी घास को उखाड़ने लगे | पहाड़ी से नीचे अलकनंदा बहती हुई दिखायी दे रही थी | पानी से उठती हुई भाप ने उसके किनारे बसे छोटे कसबे को अपने में समेट लिया था | पहाड़ी कस्बों की अपनी कोई इच्छा नहीं होती | एक तरफ पहाड़ और दूसरी तरफ पानी , उनकी रोजमर्रा के जीवन की दिशा तय करते हैं | पहाड़ और पानी , बारहों महीने ठण्ड सहते सहते, ठिठुरते हुए पहाड़ | पानी बर्फ बनकर जम सकता है , पहाड़ वो भी नहीं कर सकते | पहाड़ सिर्फ टूट सकता है |


"सुधीर ! दरवाजा खोलो |" दासगुप्ता सर दरवाजे को लगातार पीट रहे थे | सुधीर अचानक चौंककर उठे | बाहर जाकर देखा, दासगुप्ता सर दरवाजे के बाहर खड़े हैं | "प्रोफ़ेसर की तबियत खराब हो गयी है | उनको लेकर पौड़ी जाना है | चलो |" सुधीर और दासगुप्ता तेज क़दमों से चलते हुए ट्रांसिट के बाहर के मैदान में गए | हल्के हल्के रुई के फाहे जैसे आसमान से बूँदे गिर रही थी | इंदिरा और मीरा बाहर मैदान में एक ओर बैठे हुए थे | कुछ और टीचर भी एक एक झुण्ड सा नियत करके उसमे शामिल थे | "स्वामी सर कहाँ हैं ?" सुधीर ने इधर उधर घूमकर पूछा | "कॉलेज की एम्बुलेंस लेने गए हैं | प्रोफ़ेसर ने तुम्हें बुलाया था |" दासगुप्ता धीरे से सुधीर के कान में बोले , "कुछ कहना मत, बस सुनते जाना उनसे |" सुधीर एकाएक डर गए, माँ ने एक बार ऐसे ही बुलाकर दादा के पास भेजा था, फिर कान में कहा कि कुछ कहना मत , बस सुनते जाना | सुधीर एकटक दासगुप्ता सर को देखते रहे , दादा को सुधीर ने फिर कभी अपने सामने नहीं देखा |

प्रोफ़ेसर सो रहे थे , या शायद थक गए थे | थकान से आँखें मूँद लीं थी | सुधीर बिना कोई आवाज किये रूम के अन्दर आये, अर्चना ने चुप रहने का इशारा करके कुर्सी पर बिठा दिया | "सुधीर !" प्रोफ़ेसर ने हलकी सी आहट भांप ली | "जी सर !" सुधीर चौकन्ने से हो गए | " थोड़ा देखके चलना आगे फिसलन है |" प्रोफ़ेसर बड़बड़ाये | सुधीर ने बहुत ध्यान लगाकर सुनने की कोशिश की | "ये कौन है ?" प्रोफ़ेसर ने अचानक आँखें खोल दी | "मैं हूँ ! सुधीर " सुधीर ने फिर से जवाब दिया | "सुधीर , तुम्हारे पास माचिस है ?" प्रोफ़ेसर ने पूछा | "यस सर !" सुधीर ने जवाब दिया | "दिया जला दो , एक अगरबती |" प्रोफ़ेसर ने अपना कमरा समझकर भगवान के आले की ओर इशारा किया | अर्चना अल्मिरा से एक अगरबत्ती लेकर आई और सुधीर को दे दी | सुधीर ने अगरबत्ती जलाकर प्रोफ़ेसर के सिरहाने रख दिया | प्रोफ़ेसर ने राहत की साँस ली , "हाँ, अब आराम है | शोभा , ये तकिया हटा दो |" प्रोफ़ेसर ने अर्चना को शोभा कहकर संबोधित किया | अर्चना चौंकी, पास नहीं गयी | सुधीर ने पास आकर तकिया हटा दिया | "शोभा ! तुम डॉली को लेकर...बस कुछ दिन की तो बात थी ... उसके बाद मैं ..." प्रोफ़ेसर अचानक चुप हो गए, "सुधीर ? ये तुम हो क्या ?"
"जी सर ! क्या बात है ?" सुधीर ने पूछा | प्रोफ़ेसर चुप रहे | "सर ?" सुधीर पास आये | "नहीं, कुछ नहीं" प्रोफ़ेसर झल्लाकर बोले, "मैं ठीक हूँ | चलो, मैं चलता हूँ |" ये कहकर प्रोफ़ेसर चुपचाप लेट गए | थोड़ी देर बाद उठकर बोले - "सुधीर ! चौखम्भा चलेंगे हम , ठीक है ?" सुधीर ने हाँ में सर हिला दिया

अगले दिन मिस अर्चना, मीरा कुछ खाना लेकर आये | सुधीर रात भर अस्पताल में ही रहे | प्रोफ़ेसर उप्रेती के साथ वाले बिस्तर पर लेटे रहे | "अब कैसी तबियत है प्रोफ़ेसर उप्रेती की ?" मीरा ने पूछा | "अभी सो रहे हैं | रात भर कुछ -कुछ बोलते ही रहे | अभी जाकर सोये हैं |" सुधीर ने जवाब दिया | "डॉक्टर ने क्या कहा है ?" मिस अर्चना ने बैठते हुए कहा | "ठीक हैं | बस थोड़ा तनाव की वजह से | काफी कमज़ोर भी हो चले हैं, वजन सामान्य से काफी गिर गया है |" सुधीर ग्लूकोज़ की बोतल को खाली होते हुए देखता रहा | "तुम खाना खा लो" मीरा ने सुधीर की ओर खाने का डब्बा बढ़ा दिया | "कुछ रिपोर्ट्स आनी बाकी हैं , उसके बाद ही सही सही कुछ कहा जा सकता है |" सुधीर ने डब्बा मेज़ के ऊपर रखते हुए कहा | "ठीक है, अभी थोड़ी देर में स्वामी सर आयेंगे | वे रहेंगे प्रोफ़ेसर के पास | तुम खाना खा लो" अर्चना ने कहा | "यहाँ पौड़ी में धूप अच्छी आती है | थोड़ी चहल पहल रहती है तो महसूस होता है कि दुनिया में और लोग भी रहते हैं | मैं थोड़ा बाहर हो आती हूँ |" कहते हुए मीरा बाहर चली गयी | "तुमने खाना खाया " सुधीर ने अर्चना की ओर देखकर पूछा | एक पल के लिए तुम कहना थोड़ा अजीब लगा, लेकिन अधूरी बात अधूरी नहीं रख पाया | अर्चना को अच्छा लगा, "नहीं, अभी नहीं |
"तो आप भी अभी खा लो , काफी खाना रखा है मीरा जी ने |"
"तुम ही सही रहेगा |" मिस अर्चना मुस्कुराई |सुधीर ने खाने के डब्बे को खोला | एक ख़ाली डिब्बे में आधी सब्जी डालकर अर्चना ने अपने पास ले लिया |
"क्या हम डॉली को खबर करें ?" अर्चना ने पूछा |
"मैंने पूछा था प्रोफ़ेसर से, उन्होंने मना किया |" खाने का कौर मुँह में डालते हुए सुधीर ने कहा |
"लेकिन , प्रोफ़ेसर की हालत...डॉली को पता तो होना ही चाहिए | " मिस अर्चना ने सुधीर को समझते हुए कहा, "क्या प्रोफ़ेसर ने साफ़ साफ़ मना किया ? तुमने पूछा या उन्होंने खुद कहा ?"
सुधीर खाना हाथ में लेकर रुक गए, "प्रोफ़ेसर रात भर डॉली के बारे में बात करते रहे , डॉक्टर बीच बीच में आके उन्हें चुप होने के लिए कह रहे थे | जब मैंने उनसे पूछा कि प्रोफ़ेसर क्या डॉली को यहीं बुला लें, तो उन्होंने मना कर दिया | इससे ज्यादा मैं पूछ नहीं सका |" धूप दरवाजे तक आ गयी थी | सुधीर ने दरवाजे की ओर देखा | अर्चना ने पीछे मुड़कर दरवाजे की तरफ देखा, कोई नहीं था | "क्या बात है ?" अर्चना ने सुधीर की ओर देखकर पूछा
"नहीं, कुछ नहीं | क्या तुम पूरी सर्दियाँ यहीं रहोगी ? अभी तुम्हें कोई क्लास नहीं मिली है | छुट्टियों के बाद ही वो सब होगा... एक -डेढ़ महीने बाद |
"हाँ ... तुम लोग भी तो यहीं हो |"

शाम को वापस ट्रांसिट आकर सुधीर अपने कमरे में लेट गए | चाय पीने का मूड हुआ, उठकर बोयज़ हॉस्टल की ओर जाने लगे | होस्टल की ओर जाने वाली पगडण्डी से एक पल रूककर मेंढक पहाड़ी की ओर देखा, हम शापित लोग हैं , मन ही मन सोचा और फिर आगे बढ़ गए | बोयज़ हॉस्टल में फिफ्थ सेमेस्टर के ही कुछ स्टुडेंट रह गए थे | कुछ स्टुडेंट सुधीर के पास आये, वे प्रोफ़ेसर उप्रेती की तबियत के बारे में जानना चाहते थे | सुधीर का ध्यान बार बार भटक कर प्रोफ़ेसर के कहे वाक्य पर अटक रहा था कि हम शापित लोग हैं | डॉक्टर तुम यहाँ से कहीं और चले जाओ, और अर्चना को भी ..."वे ठीक हैं , कुछ ही दिनों में वापस आ जायेंगे |" सुधीर ने जल्दी से कहा | सुधीर को ऐसा लगा कि जाने से पहले उन्होंने उसे अविश्वास से देखा हो | रमेश को चाय बनाने को कहकर सुधीर एक खाली टेबल पर बैठ गए | हॉस्टल मेस पूरी तरह खाली थी | आज आखिरी पेपर ख़त्म होने के साथ आधे से ज्यादा हॉस्टल खाली हो चुका था | कल सारे लड़के चले जायेंगे | फिर हॉस्टल मेस बन्द हो जायेगी , सुधीर को अपने खाने का इंतजाम बाहर कहीं किसी होटल में करना होगा | सारे टीचर्स भी कल चले जायेंगे | दासगुप्ता सर ने भी सामान पैक कर लिया था, इंदिरा के विरोध के बावजूद | हम शापित लोग हैं ... स्माल सेल लंग कार्सिनोमा ... उफ़ |

तीन साल तक लंग कैंसर से लड़ने के बाद आखिर प्रोफ़ेसर ने अपनी लड़ाई रोक दी | डॉली से लड़ाई भी प्रोफ़ेसर जारी नहीं रख सके, उन्हें बुला लिया गया| प्रोफ़ेसर ने शोभा से दूसरी शादी की थी | डॉली, प्रोफ़ेसर की पहली पत्नी से हुई बेटी थी | अनुपमा, जिसे प्रोफ़ेसर ने तलाक़ दिया था | कुछ दिनों बाद , अनुपमा का शव पंखे से लटकता हुआ पाया गया | डॉली को प्रोफ़ेसर अपने पास लेकर आ गए | जिंदगी भर इस अपराधबोध से प्रोफ़ेसर मुक्त नहीं हो सके | शोभा ने बाद में डॉली को सब कुछ बता दिया था , जिसके बाद डॉली ने कभी प्रोफ़ेसर को माफ़ नहीं किया | अपनी माँ के नाम पर ही अनुपमा नाम डॉली ने अपना लिया |

देहरादून में ही प्रोफ़ेसर का अंतिम संस्कार करना निश्चित हुआ | मुखाग्नि देने के लिए सुधीर से कहा गया | सुधीर की यादों में अभी प्रोफ़ेसर की बातें चल रही थी | स्वामी को ये सब मत बताना, अर्चना और तुम भी कहीं और चले जाना | अर्चना का हाथ थामकर प्रोफ़ेसर बच्चों की तरह रोये थे, "मुझे माफ़ कर देना अनुपमा |" शव आधा जल गया था | दहक वातावरण में अभी थी | सुधीर बोझिल क़दमों से पीछे पीछे हटे | तीन दिन बाद राख ली जाती है | सुधीर ने अस्थियों को एक घड़े में भरा , और अनुपमा को दे दिया | राख के एक एक टुकड़े में प्रोफ़ेसर के होने का अहसास था | यार डॉक्टर , यहाँ पहाड़ों में अपनी जिंदगी खराब मत करो | हम लोग तो दुनिया से भागे हुए लोग हैं , तुम क्यूँ भाग रहे हो | राख जैसे पूरे शरीर में चढ़ती जा रही हो |

"पौड़ी!!! पौड़ी!!! " ऋषिकेश बस अड्डे पर पौड़ी की बस तैयार खड़ी थी , कंडक्टर हर आने जाने वाले से पूछ रहा था | सुबह के चार बजे थे | "भेजी, कहाँ जाना है ?" कंडक्टर ने सुधीर को हिलाकर पूछा | "पौड़ी " सुधीर की आँखें कहीं और देख रही थी | "वो वाली में बैठ जाओ |" कंडक्टर ने कहा | सुधीर जाने लगे तो कंडक्टर फिर से चिल्लाया - "अरे भैजी! इधर इधर |" जब ध्यान देने के बाद भी उसने देखा कि सुधीर के कदम कहीं के कहीं जा रहे हैं | उसने मन ही मन कुछ अंदाजा लगाया, भागकर आया | "भेजी ?" सुधीर की अधमुंदी आँखों में देखने लगा | हाथ पकड़ने की कोशिश की तो सुधीर ने हाथ में रखी प्लास्टिक की थैली अपने से सिमटा ली, जैसे कंडक्टर उससे वो थैली छीनना चाहता हो | उसने हाथ पकड़कर सुधीर को बस के अन्दर बिठा दिया | मन्दिर वाले बाबाजी आखिरी दिनों में चल नहीं पाते थे , जमीन पर घिसट घिसट कर चलते थे | "अर बेटा! सुना दे जरा गीता सार |"

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतं |
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ||

"भाईसाहब !" कंडक्टर ने सुधीर को हिलाया, "आपकी तबियत तो ठीक है ?"
सुधीर को याद आया , कि बाबाजी के साथ एक औरत रहती थी | माँ से उसने पूछा कि वो कौन है | वो उनकी चेरी है, माँ ने कहा | सुधीर को लगा कि पत्नी को कहते होंगे | ये तो उसे काफी दिनों बाद पता चला कि चेरी उस लड़की को कहते है, जो किसी बाबा के साथ भाग आई होती है |

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे |
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता: ||

कंडक्टर ने सुधीर का माथा छुआ "शायद थोड़ा ज्वर है आपको, बस थोड़ी दूर और है आपका कॉलेज | कॉलेज के टीचर हैं न आप ?" सुधीर ने ठंडा हाथ अपने माथे पर महसूस करके आँखें खोली | "हाँ , हाँ कॉलेज ही जाना है | आया क्या ?" कंडक्टर ने तसल्ली जैसे देते हुए कहा , "बस थोड़ी दूर है |"

"आ गया भाई साहब ! आपका कॉलेज |" कंडक्टर ने सुधीर को जगाया, "तबियत ठीक है अब आपकी ?" "हाँ मैं ठीक हूँ |" सुधीर ने उनींदी आखों से बाहर देखा | फिर तेजी से बस से उतर गया | कॉलेज दिखायी दे रहा था, सर्द बैगनी छाँव में | कॉलेज के आसपास का पूरा गाँव धूप में नहाया हुआ था | तेज तेज क़दमों से सुधीर चलना लगा | "चलो " पीछे से कंडक्टर की आवाज आई , और बस आगे बढ़ गयी | सुधीर ने अपने को स्वस्थ महसूस किया | कदम आगे बढ़ाया ही था कि माथे में भयंकर पीड़ा शुरू हो गयी | "गुड मोर्निंग सर |" रमेश मफलर पहने हुए सामने खड़ा था | "सर , आप बड़ी जल्दी आ गए | सामान नहीं लाये |" उसने पूछा | सुधीर को याद आया कि उसके साथ कोई सामान नहीं है | "सर!" रमेश पीछे से चिल्लाता रह गया | कॉलेज के गेट के बगल से एक छोटी सी पगडण्डी थी | सुधीर उसी पगडण्डी पर चलने लगे | बस थोड़ी दूर और, सुधीर अपने आप से कहते जा रहे थे | थकान बढती जा रही थी , सुधीर को महसूस होने लगा था कि उन्हें ज्वर है | पगडण्डी मेंढक पहाड़ी के पास जाकर सर्पिलाकार तरीके से मुड़ गयी | जिससे वो रास्ता खत्म होने का आभास से रही थी | पहाड़ी के सिरे पर पहुंचकर सुधीर ने इधर उधर घूमकर देखा | फिर जल्दी से थैले को उलटकर राख हवा में उछाल दी | सुधीर को काफी हल्का महसूस हो रहा था मानों इस राख के साथ उसने अपने अस्तित्व का कुछ टुकड़ा भी हवा में बिखेर दिया हो | राख उड़ती हुई घाटी से नीचे गिर रही थी, इस उम्मीद में कि कभी हवा में उड़ते हुए वो शायद चौखम्भा पहुँच जाए | वो राख को देखता रहा, हम शापित लोग हैं |
can we do nothing for the dead ? And for a long time the answer had been - nothing! - Katherin Mansfield
निर्मल वर्मा के लिए

टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
मन्दिर में प्रसाद, घर पर मीठा | इन सब से जिंदगी की कड़वाहट शायद थोड़ी कम होती हो
bahut sunder kathan----
स्तब्ध होकर पढ़ी सारी कहानी। मैं इन पात्रों की तरह शापित होना चाहता था, अब भी चाहता हूँ। शायद सच्चाई सपनों से बहुत कड़वी हो, लेकिन एक बार जीना है ऐसे माहौल में।
सपनों से हार जाना भी जीवन का एक अहम् पड़ाव है, सफ़र फिर भी जारी रहता है ....
बहुत खूब, नीरज।
पहले ही कहानी पढ़ चुका हूँ, बाँधकर रखने वाली कहानी।
बेनामी ने कहा…
सुंदर लेखन,अद्भुत परख...इसे जारी रखो...
Smart Indian ने कहा…
... मगर इतना तो लगता है कि ज़िन्दगी अनंत पात्र के भूत-भविष्य, सत-असत में टूटे टुकडों जैसी ही है।

बान्धने वाली कहानी।

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जिंदगी एक अवसाद है | एक मन पर गहरा रखा हुआ दुःख, जो सिर्फ घाव करता जाता है | और जीना , जीना एक नश्तर है , डॉक्टर | ऐसा नहीं है, मेरी तरफ देखो , देखो मेरी तरफ | आँखें बंद मत करना | जीना , जीना है , जैसे मरना मरना | जब तक ये हो रहा है, इसे होने दो | इसे रोको मत | तो आप ऐसा क्यों नहीं समझ लेते कि अभी मौत हो रही है है , इसे भी होने दो | मुझे मत रोको | डॉक्टर , लोग कितने गरीब हैं, भूखे सो जाते हैं , भूखे मर जाते हैं | तुम्हें एक मेरी जान बचाने से क्या मिलेगा ? तुम जानना चाहते हो , मेरे दिल में उन लोगों के लिए कितनी हमदर्दी है ? जरा भी नहीं | मरने वाले को मैं खुद अपने हाथों से मार देना चाहता हूँ | जब कभी सामने सामने किसी को मरता हुआ देखता हूँ , तो बहुत आराम से उसकी मौत देखता हूँ | जैसे परदे पर कोई रूमानी सिनेमा चल रहा हो | मुझे मौत पसंद है , मरने की हद तक | फिर मैं क्यूँ डॉक्टर ! मुझे क्यों बचा रहे हो ? क्यूंकि , मैं खुद को बचा रहा हूँ , अपनी आत्मा का वो हिस्सा बचा रहा हूँ , जिसे मैंने खुद से कई साल पहले अलग कर लिया था | अपने बेटे को बचा रहा हूँ, जिसे मैं बचा नहीं पाया

एक सिंपल सी रात

 (कुछ भी लिखकर उसे डायरी मान लेने में हर्ज ही क्या है , आपका मनोरंजन होने की गारंटी नहीं है , क्योंकि आपसे पैसा नहीं ले रहा ।) आ धी रात तक कंप्यूटर के सामने बैठकर कुछ पढ़ते रहना, पसंदीदा फिल्मों के पसंदीदा दृश्यों को देखकर किसी पात्र जैसा ही हो जाना, अँधेरे में उठकर पानी लेने के लिए जाते वक़्त महसूस करना कि कोई तुम्हारे साथ चल रहा है | फिर आहिस्ता से दबे पाँव खिड़की पर आकर तारों को देखना, अपना धुंधला प्रतिबिम्ब तारों की पृष्ठभूमि में, काँच को अपनी साँसों से आहिस्ता से छूना जैसे कोई अपना बहुत ही क़रीबी तुम्हें एक जन्म के बाद मिला हो | उन लम्हों को याद करना जो तुम्हारे सिवा किसी को पता ही न हो , कभी कभी खुद तुम्हें भी नहीं | रात के उन लम्हों में जब तुम बिलकुल अकेले हो, तुम अपने आप को देख सकते हो | तुम बहुत पहले ही हार चुके हो, अब कोई गुस्सा नहीं, किसी से कोई झगडा नहीं, नाराजगी भी भला क्या हो | मौत कितनी सुखद होती होगी | किसी से कोई पर्दा नहीं, कोई दूरी या नजदीकी नहीं | मैं मरने के बाद मोक्ष नहीं चाहता, पुनर्जन्म भी नहीं, मैं भूत बनना चाहता हूँ | चार साढ़े चार बजते