ह र रोज सुबह छः बजे ही उसकी आँख खुल जाती । वह आँखों को मसलता, कांच के परे दुनिया देखकर वक़्त का अंदाजा लगता और जाने अनजाने यह उम्मीद भी करता कि वक़्त कुछ तो बदला हो, सात बजे हों, पांच बजे हों .. पर छः नहीं, लेकिन सिरहाने रखी घडी के कांटे उसकी दोनों आँखों के बीच चमकते रहते । वह डर जाता, एक ही वक़्त पर उठना बूढ़े होने की निशानी है । शायद वह बूढा हो रहा है, इस उम्र में ही । या शायद वह एक बुढ़ापा जी रहा है , जिसके बाद एक दूसरा बुढापा भी है । जमीन पर पाँव रखते हुए उसे बाबु की याद आती है । जब वह छोटा था तो हमेशा बिस्तर से उठने से पहले हाथ लगाकर जमीन को छूकर माथे पे लगाता । ऐसा वो किसी आदत से मजबूर होकर नहीं, पूरी आस्था से करता था । बाबू को देखकर , यह आदत उसके अन्दर भी धंस गयी थी । मन से किये हुए कुछ काम भी महज आदतें होती है । जब तक हमारे साथ होती हैं , हमें लगता ही नहीं कि यह एक आदत है । बस करते जाते हैं , बेवजह । जब वह दौर पीछे छूट जाता है तो पता चलता है कि यह भी कोई आदत थी । चलता हुआ समय आदमी को अपने बारे में कई ऐसे सच ब...