डॉक्टर साहब गर्मियों की छुट्टियों में आते थे, नीचे शहर से। जैसे सभी लोग आते थे। और चले जाते थे, जब सब लोग चले जाते थे। बस एक दिन और रहकर।
(अगर इस कहानी के पात्र काल्पनिक है, तो ये वास्तविकता नहीं, बहुत बड़ा षड्यंत्र है) कै केयी कोपभवन में थी, दशरथ आये, लाइट ऑन की, चेयर खींच के बैठ गए | लॉर्ड माउंटबेटन अभी भी नाराज बैठी थी, दशरथ की आँखों से हिन्दुस्तान की बेबसी झलक रही थी | "आपने दो वचन देने का वादा किया था, याद है न ?" अँगरेज़ सरकार अभी इतनी आसानी से माल-मत्ते वाला देश छोड़ने को तैयार न थी | "हाँ प्रिये!" नेहरूजी का डर सतह पर आ गया | "मेरा पहला वचन है कि अयोध्या में इस बार बड़ा बेटा गद्दी पर नहीं बैठेगा | देश में अब डेमोक्रसी होगी | हर कोई , हर किसी का शोषण नहीं करेगा | आम चुनाव से चुने गए ख़ास आदमियों को ही शोषण का हक होगा |" दशरथ नाराज तो बहुत हुए किन्तु माउंटबेटन के बेलन को स्मरण कर चुप रह गए| "अपना दूसरा वचन कहो महारानी कैपिटलिस्ट!" उद्धरण सुनकर कैकेयी मुस्कुराई | "सुमित्रा के पुत्रों को चुनाव लड़ने का हक नहीं होगा |" दशरथ ने दिल पर हाथ रखा किन्तु हृदयगति नहीं रुकी, "तुमने राम के लिए वनवास तो माँगा ही नहीं ?" माउंटबेटन ने बड़े बेपरवाह भाव से जवाब दिया - ...
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