"बस भी करो, थोड़ा धीमे बोलो या चुपचाप सो जाओ, बच्चे सो रहे हैं |" जमनोत्री ने उलाहना दिया| सुधीर के पापा गाते रहे "इतना तो करना स्वामी, जब प्राण तन से निकलें..." हारकर जमनोत्री को उठना पड़ा |
बहू अमेरिका से साड़ी लेकर आई थी | "नहीं मम्मी जी, इसे पहनो... देखो, आप पर कितनी अच्छी लग रही है |"
जमनोत्री हतप्रभ थी- "उस देश में साड़ी मिलती है क्या ? साड़ी पहनती है तू वहां ?"
सुधीर नाश्ता करते हुए बोला - "अरे माँ, इसके पास तो इतनी साड़ी हैं कि उनके लिए एक कमरा खाली करना पड़ा हमें वहां |"
"अच्छा !!!" जमनोत्री ने बनावटी आश्चर्य प्रकट किया |
"और आप मेरी दी हुई साड़ी पहनती भी नहीं" बहू की नाराजगी जायज़ थी |
"अरे बेटा, यहाँ कहाँ पहनूं मैं अब ? कभी कभी शादियों पार्टियों में पहन लेती हूँ |" जमनोत्री बचाव कर रही थी, बहू को दुःख नहीं पहुँचना चाहिए |
"क्या बात कर रही हो मम्मी जी! अरे वो तो मैं घर में पहनने के लिए लायी थी, आप उन्हें घर पे पहना कीजिये , शादियों में नहीं |" बहू कहीं से भी उनका उपहास नहीं कर रही थी | यहाँ भी हारकर जमनोत्री को बहू की लायी गयी साड़ी पहनकर बैठना पड़ा |
जेठानी समझदार थी, बाहर से ही घर में चल रहा वातावरण समझ गयीं | "अरे बहू! क्या बात है, क्यूँ डांट रही हो इसे ?" जमनोत्री की जेठानी ने हल्के माहौल को और हल्का करने की कोशिश की |
"नहीं नहीं मम्मी जी, डांट नहीं रही हूँ, मैं मम्मी जी को कह रही थी कि....और आप भी मेरी दी हुई साड़ी नहीं पहनती |" बहू अब जेठानी से सवाल जवाब करने लगीं |
"नहीं बेटा, पहनती हूँ..." जेठानी जी भी सकपका गयीं "मैंने अभी स्नान-ध्यान कुछ नहीं किया, उसके बाद पहनूंगी |"
"आज बहू सबकी तलाशी लेगी |" जमनोत्री को अपनी बहू पर लाड़ आ गया | कभी कभी बच्चों जैसी जिद पे उतर आती है, सुधीर की दादी तो अभी तक हमपे इतने ताने मार चुकी होती कि...खैर जमाना बदल गया है, तो हमें भी बदलना चाहिए "अरे बहू! अब बुढापे में हम लोगों का भी क्या पहनना ओढ़ना | पूरा बचपन और जवानी जंगल में काट दी | घर से निकले मुँह-अँधेरे और जंगल गए घास-पात, कभी लकड़ी लेने, खेतों में काम, बैलों को सानी, दिन भर में इतने काम होते कि किसे याद कि फैशन भी करना है | हाँ , कभी किसी की शादी-ब्याह के वक़्त देख लिया ऐना तो ठीक, नहीं तो ऐसे ही चल दिए |"
बहू के मुँह से बेसाख्ता निकल गया -"हाँ तो अब थोड़े ही जंगल में हो |"
प्रतीक भी अब इस ओर नहीं आता, जाने उसकी दादी ने क्या कहा उससे कि अब सिर्फ अपनी छत पे ही खेलता रहता है | जमनोत्री ने नन्हे प्रतीक को अपनी गाडी को उलट पलटकर ठीक करते हुए देखा | पिछली छुट्टी में सुधीर लेके आया था प्रतीक के लिए, अमेरिका से | "ए प्रतीक! इधर आ!" जमनोत्री ने पुकारा | प्रतीक ने सर उठाकर देखा, और फिर सर झुका लिया "देख नहीं रहे, मैं अभी बिजी हूँ|" प्रतीक भी बिजी था, प्रतीक की दादी ने स्नान-ध्यान करके बहू की दी हुई साड़ी पहनी थी | इधर सुधीर के पापा धूप में चटाई बिछा के लेट गए और अखबार पढ़ने लगे | अभी थोड़ी देर में अखबार पढ़ते पढ़ते ही सो जायेंगे | सुधीर इस बीच छत पे आ गया, अपने मोबाइल पे गाने बजाने लगा | जरूर सुधीर ने बहू के साथ कुछ चुहल की होगी, तभी भागते भागते छत पे आया है | जमनोत्री का अनुमान बिलकुल सही था, बहू भी पीछे पीछे छत पे आई, और आँखों ही आँखों में सुधीर से गुस्सा भी थी |
रास्ते में लगे हुए पेड़ों की शाखाएं बिजली के तारों को छूने लगे थे | एक निश्चित समय अंतराल पर उनकी शाखाएं काटने के लिए बिजली विभाग किसी को भेजता था | खट-खट की आवाज आने लगी, और एक शाख काट दी गयी | शाख के गिरते ही छत की आखिरी छोरों पे खड़ी जमनोत्री और उसकी जेठानी की आँखों आखों में ही कुछ बातें हुई | फ़ौरन से दोनों उठ गयी | मंहंगी अमेरिकन साड़ी के आँचल को कमर में बाँधा, और दोनों चल पड़ी टूटी हुई शाखें उठाने के लिए | "मम्मी जी कहाँ जा रही हैं ?" बहू ने सुधीर से पूछा | सुधीर का ध्यान रास्ते पे गया, जहाँ जमनोत्री टूटी हुई डाल को कंधे पे उठा के विजयी मुद्रा में चली आ रही थी | उनके पीछे ही जेठानी भी दूसरी डाल लेकर आ रही थी | "माँ! क्या कर रही हो उनका ?" सुधीर ने जिज्ञासा प्रकट की | जमनोत्री का ध्यान सुधीर की बातों पे नहीं था, जेठानी एक डाल अपनी छत पे रखके दूसरी लेने के लिए जल्दी कर रही थी | जमनोत्री ने जल्दी से डाल रखी और चली गयी | सुधीर के पापा ने धूप में लेटे लेटे एक आँख खोली | "पिता जी! माँ ये डालें क्यों ला रही है ? क्या करेगी इन लकड़ियों का ?" सुधीर ने माँ की ओर दिखाकर पूछा | जमनोत्री ने कटी शाखों का गट्ठर बना लिया | उसे पीठ पर लादकर लाने लगी | "पता नहीं बेटे! तभी तो मैं इसे गंवार कहता हूँ |" सुधीर के पापा हँसते हुए बोले | "अरे सूखी लकड़ियाँ बहुत काम आती हैं |" जमनोत्री ने झुके झुके ही जवाब दिया | सुधीर के पापा ने गट्ठर को पीठ से उतार दिया | "लेकिन अब तो गैस है, और नहाने के लिए गीज़र है बाथरूम में | फिर भी ?" सुधीर ने अपना तर्क प्रस्तुत किया | जिस पर जवाब देने की जमनोत्री की कोई इच्छा नहीं थी | सुधीर के पापा, जमनोत्री का ये भाव समझ गए | "और रखोगे कहाँ ? छत पे ? छत खराब हो जायेगी |" सुधीर ने आखिरी तर्क प्रस्तुत किया | "ए जमनोत्री! और भी हैं अभी वहां, रास्ते के दूसरी तरफ, जल्दी चल" छत के दूसरे छोर से जेठानी की आवाज आई |
सुधीर चुपचाप माँ को शाखें ला लाके इकट्ठी करता हुआ देखता रहा | बीच बीच में सुधीर के पापा, सुधीर की ओर देखकर सांत्वना भरे स्वर में कहते रहे "गंवार है, कभी शहर देखा ही नहीं, तो ये हरकत तो करेगी ही |" सुधीर जानता था कि पापा की इसमें मौन सहमति है | बहू अपनी अमेरिकन साड़ी की दुर्दशा देख रही थी | सड़क के दूसरे छोर से जमनोत्री और जेठानी खिलखिलाते हुए आ रहे थे | प्रतीक भी एक छोटी सी डाल कंधे पे लादके चला आ रहा था, उन छोटे छोटे बच्चों की तरह जो बड़ी दीदी के साथ पहली बार स्वेटा पीठ पे बाँध के घास-पात लेने जाते हैं | इधर सुधीर के मोबाइल पे गाना अभी भी बज रहा था
'अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूँ,
अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूँ|'
टिप्पणियाँ
@सर्दियों की धूप वैसे भी मन को अन्यत्र कहीं ले जाती है
एक कुछ मेरी भावनाओं को भी शब्द मिले.......
साधुवाद..........
- दो घरों के बीच अभी भी जीवित है।
- नई टिहरी बसाने के लिए कितने ही पेंड़ कटे।
- पेंड़ की डाल कटी नहीं कि एका हो गया।
- डालें बिजली के तार को छूती थीं।
- टिहरी बाँध के पावर हाउस से बिजली आती है।
- डालों और सूखी लकड़ियों से अमेरिकन साड़ी का सत्यानाश हो जाता है। गीजर और गैस बेमानी हो जाते हैं।
कितने ही संकेत! क्या मैं ठीक पकड़ रहा हूँ?
अत्यंत साधारण सी बात को लेकर कहानी की ऐसी बुनाई! सीधी साधी सीधे दिल में उतर गई। ...
अम्मा लकड़ी जलाना नहीं छोड़ती, गठिया की रोगिणी को जाड़े में सेंकने से आराम रहता है। पिताजी की भी मौन सहमति रहती है। जियो गुरु! जाने कितने दिलों के तार झनझना दिए होगे।
आपके कहने के बाद मैंने गूगल पर समहाव इम्प्रोपर सर्च किया तो मेरापहाड़ कम्युनिटी में मुझे इस पर एक लेख मिला| कुछ कुछ ऐसा ही है, लेकिन मैंने मनोहर श्याम जी को कभी नहीं पढ़ा है , इन फैक्ट मुझे आज पता चला की वे उत्तराखंड से थे| आपने पढ़ी हों तो कृपया बताएं कि क्या ऐसी ही कहानी है|
@ दीपक डुडेजा DEEPAK DUDEJA
कहानी पसंद करने के लिए आपका शुक्रिया, शुरू से हौसला बढ़ाते आ रहे हैं आप|
@ गिरिजेश राव
आज हर उत्तराखंडी घर में एक नयी टिहरी है, जिसके दिल में अभी भी पुरानी टिहरी है| हमें हमारे जंगल वापस कर दो| हमारा पानी, हमारी रोजमर्रा की जिंदगी, हमारे पहाड़ जिन्होंने हमें जीने की अदम्य इच्छाशक्ति का मतलब समझाया| मल्टीनेशनल सपनों ने हमसे हमारा गाँव ही छीन लिया|
मैं आपको वो कहानी भेजता हूँ... यहाँ आपके लिखने में कोई उसका कोई साम्य नहीं है फिर भी ना जाने क्यों वो याद आई.
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यह वाक्य कही अवश्य नरेन्द्र जी ने है,पर आपने इसे कोट किया तात्पर्य यह कि आपकी भावना भी ऐसी ही है...
बड़ा ही अच्छा लगा जानकार...
नरेन्द्र कोहली जी की मैं धुर प्रशंशक हूँ...और उपर्युक्त कथन की तो क्या कहूँ...मेरा भी यही दृढ विश्वास है..
तब तो आपकी और हमारी खूब जमेगी| हिंदी के कुछ लेखकों में से हैं वे जो संपादक से पूरा पैसा वसूल करते हैं| साफगोई पसंद, और हिंदी के कर्ता-धर्ताओं के साथ शायद उनकी बनती नहीं इसी वजह से| लेकिन हिंदी साहित्य में उनकी किताबों से ज्यादा रिसर्च और किसी पे नहीं होती|
गिरिजेश जी की टिप्पणी नें मर्म तक पहुँचने में सहायता कर दी।
अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूँ
jiyo basiyal bhai....akarshk prstooti
sadar
अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूँ............
पूरी पोस्ट पे भारी तो ये शेर अकेले रहा सब कुछ कह गया..............
अमरीकन साड़ी.. खूब
मनोज
माँ कभी नहीं कहती, न ही उनकी किसी से इस बारे में बैठकर कोई लम्बी बौद्धिक चर्चा होती होगी कि गाँव से, जंगलों से बिछड़कर उन्हें कैसा लग रहा है| लेकिन कभी ऐसे ही अलसाई दुपहरी, जब कोई काम नहीं रहता, तो नोस्टेल्जिया बिना भावुक हुए छलकता जरूर होगा|
@डॉ. मोनिका शर्मा जी, प्रवीण पाण्डेय जी
कोशिश करता रहूँगा कि लगातार अच्छा और सार्थक लिखूं|
@सुज्ञ जी,
इस सन्देश, भावना को समझने के लिए बहुत धन्यवाद|
एक तरह का आइना देते हैं गिरिजेश जी, हम कहते हैं अरे यही तो हूँ मैं| यही तो कहना चाह रहा था मैं :)
@संजय जी,
आपके बसियाल भाई कहने से मुझे अपने बचपन के सारे दोस्त याद आ गए, जो मुझे नीह बसियाल कहके बुलाते थे|
@बेनामी जी,
आपको यह कहानी इतनी पसंद आई कि आपको इसकी तारीफ करने के लिए मजबूर होना पड़ा| जानकर अच्छा लगा|
@anjule shyam जी,
सही कहा आपने, खलील धनतेजवी का ये शेर विस्थापन के दर्द को बयां करने के लिए काफी है|
@Manoj K जी,
देखो यार, मेरी नज़रों से उतना ना दिखे| वैसे रुड़की, हरिद्वार, देहरादून ये तीनों ही उस उत्तराखंड में नहीं आते, जो मेरी कहानियों में होता है|
@Kishore Choudhary जी,
लोग इसे नैचुरल समझते हैं, कि हाँ, विकास और पर्यावरण की ये बहस तो हमेशा चलेगी| कह नहीं सकता कि विकास की ये कैसी दौड़ है| सुधीर जरूर अमेरिका रिटर्न है| लेकिन उसके चचेरे भाई अपनी जमीन बेच के होटल में जूठे बर्तन साफ़ करते हैं| पूरी जिंदगी बस किसी तरह विदेशी होटल में जाकर पैसा बनाने का ख्वाब देखने वाली पीढ़ी रह गयी है| फोर्ब्स की लिस्ट में इस बार ८ भारतीय हैं, इस पर वो भी खुश होते हैं, जाने क्यों?
कभी चलते -चलते पर भी दर्शन दें ...आपका स्वागत है
बढ़िया लिख रहे हो यार !
टिप्पणी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले को देखने इत्ती दूर चल कर आया ...यहाँ से ज्यादा गरीब तो हम ही हैं ! हुंह...
शुभकामनायें नीरज
खैर, आज एन्जॉय करो. आगे से हम आते हैं टिपियाने.
अच्छी लगी कहानी...और आपकी नई पोस्ट पे कमेन्ट ऑप्शन नहीं है..सो यहीं पे...belated ही सही wish u a very very Happy B'day!!!!
लेकिन कहानी से ज़्यादा मारक यह टिप्पणी रही, "फोर्ब्स की लिस्ट में इस बार ८ भारतीय हैं, इस पर वो भी खुश होते हैं, जाने क्यों?"