( कहानी कब तक पूरी होगी कह नहीं सकता , लेकिन अधूरे ड्राफ्ट पढ़कर भी हौंसला बढ़ाएंगे तो अच्छा लगेगा | जब तक पूरी न हो, शीर्षक तब तक यही समझा जाए | उर्दू का ज्ञान बहुत कच्चा है बेशक बेहद पसंदीदा भाषा है, सो गलतियों को नज़रन्दाज किया जाए | कहानी सम्राट, प्रेमचंद को मेरा प्रणाम | ) ये आज की बात नहीं है | हर दौर, हर उम्र में, इंसान अपने-परायों की दुहाई देता रहा है | दुनिया भर अपने परायों के नाम पे भेदभाव चलता रहा है | अपना घर, अपना गाँव, देश, समाज, धर्म ... अपनी इंसानियत ? लेकिन, कौन करता है ये फैसला कि कौन अपना है कौन पराया ? भगवान् अपने-पराये में इंसान को बाँट देता है, दिल जरूर साबुत बचता है, उसे दुनिया के स्वयंभू भगवान् जाति, धर्म में तोड़ देते हैं | टूटा हुआ कांच बार बार जख्मी करता है | गरीब के घर के टूटे हुए आईने की तरह न वो फेंका ही जा सकता, न रखा ही जा सकता | मिंयाँ ताहिर को इस बात का अंदाजा था, यही हुआ भी | शराफत अली ने रात को खाना नहीं खाया | जाने क्यूँ अब्बू बच्चों के जैसा बर्ताव करने लगे हैं; हर एक चीज़ पर नाराज़गी, पहले तो ऐसा न था | फातिमा ने खाना रखा, लेकिन मुँह जूठा करना...