(मैं जो कुछ लिख रहा हूँ, उसका कोई मतलब नहीं है | इन फैक्ट वह इतना बेमानी है कि वो क्यों लिखा है इसका कोई मानी नहीं | इस पर झगडा करने वाला भी उतना ही बेवकूफ है, जितना इस पर हँसने वाला या इसे लिखने वाला |)
देव दानव संवाद बहुत जल्दी संवाद टेलीफिल्म्स के संवाद लेखकों की मंत्रणा से ही सुफलित होने लगा | अब ऐसे समय में कभी किसी को कुछ मिल भी जाता था तो गुड ओल्ड टाइम्स की तरह वे झगडा करके मामला निपटान नहीं करते, बल्कि चुपके से लेके फूट लिया करते थे | जब बहुत दिन तक कुछ हाप्पेनिंग नहीं हुआ तो देवराज को भारी चिंता हुई | कोई राक्षस घनघोर तपस्या करके, शिव को प्रसन्न करने के वास्ते, उनका सिंहासन नहीं डुला रहा | एक बात नारद ने भी कभी नोट नहीं की, कि राक्षस कोई हो, वरदान कोई हो, देने वाला कोई हो, देवराज का सिंहासन यकायक मेले में लगी ड्रेगन नाव जैसा आगे पीछे जाने लगता | अरे भाई, जिससे प्रॉब्लम हो उसे हिलाओ, क्या फ़िज़ूल में इधर उधर हाथ मारते हो | खैर, इस सब वजहों से मोनिका, रम्भा आदि आदि जोब्लेस होकर महज छुपनछुपाई खेलने जैसे कामों में सीमित रह गयी थी | अप्सराओं की नयी भर्तियाँ नहीं हो रही थी, जब काम ही नहीं तो क्या करें, धीरे धीरे वे सब साउथ का रुख कर रहीं थी |
“क्या वरुणदेव क्या कर रहे हो ?” देवराज को यकायक कमरे में प्रवेश करते हुए देखकर भी वरुणदेव ने पहले की तरह कोई हड़बड़ी नहीं दिखाई |
“कुछ नहीं महाराज पुराने धर्मग्रंथ पलट रहा था | मन अब ऊब सा गया है | सोचा कुछ नहीं तो ये सब पढ़ लूँ, लेकिन इसमें भी एक से एक बोरिंग बातें लिखी हुई हैं | बहुत सारी तो ऐसी हैं जो मुझे ही नहीं पता कि हुआ था, अब इसमें है तो मान लूँगा ? थोडा इन्तेरेस्तिंग है, अब यही देखो एक में लिखा है कि मैं पानी बरसाता हूँ, अबे तो साले मुनिसिपालिटी वालों को बिल क्यों भेजता है, मुझे दे | खैर महाराज, ये बोल के मैं अपना बी पी क्यों बढ़ाऊँ, आप बताओ, आज इधर ? सुरती खत्म हो गयी दिक्खे |”
“ना, ना इधर तो मैं ऐसे ही आ गया, जरा यूँ ही, अब क्या पुराने दोस्तों का हाल चाल भी नहीं ले सकते |” वरुणदेव ने मुंह को थोडा टेडा करके कहा- “ये मेरे सामने नारद टाइप की बात तो मती किया करो |”
“यार, मैं सोच रिया था कि यो बहुत दिन से कुछ हप्पनिंग नहीं हो रहा | ना कोई राक्षस तप कर रहा | ना कोई अमर होने के लिए बेताब हो रहा | और तो और बीच बीच में शिव भगवान ही भाँती भाँती के नाटक कर लेते थे, आजकल वो सब भी बंद हैं, क्या बात हुई होगी , मुझे तो बड़ी चिंता होरी |”
“चिंता को दो तुम हरिवंश राय बच्चन को, और होरी को दो तुम प्रेमचंद को | तुम चलो मेरे साथ, मैंने एक नयी स्काईबाइक खरीदी है, चलो तुम्हे घुमा के लाता हूँ |
वरुणदेव ने अपनी बाइक निकाली, पुष्पवर्षा करने वाले वेल्ले लोग ऊपर तैयार बैठे थे, दो किक्क पर गाडी स्टार्ट नहीं हुई, उन्होंने दो बार फूल पहले ही फेंक दिए | तीसरी बार गाडी स्टार्ट हुई तो फूल फेंकना भूल गए |
“ये लोग क्या बोल्लें कि हम हमेशा वो पीले कलर की धोती लपेट कर ही भागते रहते हैं, अब अगर वो हमको प्रोपर स्काई ड्राइविंग सूट में देख लें तो मर ही जाएँ |”
“कौन लोग ?” देवराज ने चिल्लाकर कहा |
वरुण देव ने भी उतना ही चिल्लाकर जवाब दिया - “अरे वही, जिन्होंने तुम्हारी कभी पूजा की नहीं, तुम्हारा कोई मंदिर नहीं बनाया | पता नहीं तुम्हे क्यों देवराज बुलाते हैं ? अर्, किताब पढोगे तो तुमको पता चलेगा कि सबसे ज्यादा बदनामी उन्होंने तुम्हारी की है |”
“हैं? सुनाई नहीं दे रहा यहाँ पीछे | हवा शायद दूसरी सैड चल रही | दुबारा बोलने की जरुरत नहीं |”
वरुणदेव चुपचाप चलाने में ध्यान लगाने लगे | लेकिन ज्यादा देर तक हवाई सड़क पर ध्यान नहीं रख सके | “वो देखो , वो वो उधर … वो दिख रिया तुमको ? ” वरुणदेव एकदम एक्साइटेड हो गए, कण्ट्रोल थोडा डगमगाया |
“किधर किधर ?” देवराज सीट कसकर पकड़कर बोले |
“चलो छोडो, चला गया, शारू खान था | बच्चों ने बोला था कि डैडी ऑटोग्राफ ले आना |”
“वैसे एक बात है ये तो अभी पिट रिया है | आजकल तो सलमान खान हिट है |”
“नहीं यार, शारुख शारुक है यार |” देवराज कुछ नहीं बोले, लास्ट टाइम उनका इस बात पर झगडा हो गया था | पूरे दो कल्प तक वे एक दूसरे से नहीं बोले थे | कहीं जाकर राहू-केतु के हस्तक्षेप से बात बनी | राहू उनके पास, केतु वरुण के पास | ऐसा लगा मानों इसी दिन के लिए भगवान नारायण ने उसके दो टुकड़े करें हो |
उनकी गाडी शनि के बेहद करीब से गुजरी, देखा उसके आसपास के वलय गायब हो गए थे |
“अबे इसको क्या हुआ ?” देवराज करीब करीब सीट पर खड़े ही हो गए | शनि महाराज देवताओं की पुराणी सीखी हुई स्टाइल से प्रकट हुए, फिर बोले, “कुछ नहीं महाराज, आजकल मेरे पे मेरी ही साढ़े साती चल रही है |”
“चल कोई नहीं ये सब तो चलता रहेगा, और अगली बार कपडे पहन के प्रकट होना | वलय गायब हो गए तो क्या, कपडे भी पहनना छोड़ देगा क्या ?”
“ऊप्स … सॉरी महाराज, आजकल इधर कोई आता नहीं ना, रावण से पिटे भी जमाना हो गया, अब तो ऐसा लगता है जैसे वो माइथोलोजिकल कैरेक्टर हो |” शनि ने अब केवल अपने फेस को प्रकट रहने दिया | शनि की बातों ने देवराज का जख्म और हरा कर दिया, जो उनके हरे कलर के सूट में सही से छिप गया | अब वे शक्लोसूरत से देवराज से देवदास हो गए, और अपने पर बनने वाली अगली पिक्चर का टिकेट बुक करने की सोचने लगे | जीवन की आपाधापी में से उन्हें शनि ने बाहर निकाला |
“मेरी एक शंका है देवराज !”
“निसंकोच कहें शनिदेव |”
“क्या अब सब कुछ ऐसा ही चलने वाला है ? आई मीन, कुछ नया नहीं होने वाला क्या ? जो पुराने टाइम में हो गया उसी की खाते रहेंगे क्या अब ?”
“अवश्य होगा, शनिदेव |” देवराज यकायक क्रोध में आ गए | रेम्बो की जितनी एक्शन फ़िल्में देखी, उन्हें साधित किया | भुजाएं फडकने लगीं, और हाथों में ना जाने कहाँ से वज्र चमकने लगा |
“महाराज, उसे अंदर रख ले | दधीची की आत्मा इसे ढूंढ रही है | मिल गयी तो वो दयालु ऋषि तुम्हारा कचालू बना देगा |” शनि ने निसंकोच भाव से कहा |
“चलो, भगवान शिव के धोरे चलते हैं |” वरुणदेव ने सुझाव दिया |
“हाँ , चलो चलो |” देवराज ने अनुमोदन किया | तभी अचानक नारायण नारायण की आवाज सुनाई दी | वरुण ने गाडी की स्पीड बढ़ा दी |
“ये जबसे जीवन ने इसका पार्ट किया है, इसको यही बोलने का चस्का सा लग गया |” वरुण ने धीरे से कहा |
“स्पीड और तेज कर, जीवन तो लालची मुनीम का भी रोल करता था | अब गिरवी रखने को मेरे पास कुछ नहीं है |” देवराज ने चिंतित लहजे में कहा |
“जय शिव शंकर | जय शिव शंकर |” चारों दिशाओं से आवाज आने लगी |
“जय, जय शिव शंकर , काँटा लगे ना कंकर, जो प्याला तेरे नाम का पिया |” देवराज ने पंचम सुर में गाते हुए अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त किया | वरुणदेव भक्तिगीत में पूरी तरह रम गए, जयदेव हो गए, गाडी रोककर गीत गोविन्द लिखने लगे | तभी फ्लैश लाईट चमकी और उसके पीछे से नारद जी मुस्कुराते हुए प्रकट हुए | एक पल को दोनों सहम गए | फिर किसी तरह खुद को संभाला |
“प्रणाम देवर्षि |” दोनों ने मशीनी अंदाज में झुककर प्रणाम किया | सामने वाला जितना बोरिंग होता था, झुकने का कोण उतना ही बढ़ता जाता था | तो एक तरह से जब वो उनके चरणों में गिरने गिरने को हो गए, तो नारद मुनि ने छोटा चिमटा बजाते हुए कहा - “नारायण, नरायण | तुम दोनों मुझे देखकर भागे थे ना ?”
“नहीं , नहीं देवर्षि | कदापि नहीं | अस्तु, हम तो आपके ही पास समाचार के लिए आ रहे थे |” वरुणदेव ने कहा |
“देवर्षि ! क्या यह सत्य है कि पर्क्स ऑफ बीइंग अ वालफ्लावर को किसी भी ओस्कर के लिए नामित नहीं किया, जबकि निचले दर्जे की फिल्म लाइफ ऑफ पाई को ११ ओस्कर पुरस्कारों के लिए नामित किया है ?” देवराज ने बनावटी चिंता दिखाते हुए पूछा |
“हाँ क्या ?” देवर्षि के मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा | “मेरा मतलब हैं, हाँ … क्या तुम्हें नहीं पता ?”
“नहीं देवर्षि | अभी आप से ही यह समाचार प्राप्त हुआ है, देवलोक में हर्षोल्लास छा गया है | अप्सराएं मंगल गान कर रही है | ऋषि समूह नृत्य कर रहे हैं |” देवराज ने सजीव अभिनय का बकौल अरुनलाल, मुजाहिरा किया |
“तुम तो जानते ही हो देवराज, इस भवसागर जो डूबता है, वही पार उतरता है | टाईटैनिक डूबा था, और लाइफ ऑफ पाई में भी जहाज डूबा था, और वैसे भी पाई की जिंदगी आधी डूबी हुई ही गुजरी थी | इसीलिए … नरायण नारायण |” नारद मुनि ने फिर से चिमटा बजाया |
“इसलिए क्या देवर्षि ?” वरुणदेव असमंजस में थे |
“इसलिए ? किसलिए ?” नारद मुनि के चेहरे पर उसकी छाया पड़ रही थी |
“चलो छोडो , हमारी शंका का समाधान हुआ देवर्षि | अब हमेँ इजाजत दीजिए |” देवराज मन ही मन हर्षाये कि चाल कामयाब रही |
“नरायण, नरायण |” देवर्षि ने बालों को झटका देते हुए आँख बंद करते हुए कहा - “अरे रुको ” लेकिन तब तक वे लोग जा चुके थे | “अरे यार , नारायण का सही उच्चारण नहीं किया था, सुनके तो जाते |”
“हे देवों के देव, महादेव |” आसपास पहले से बिखरे फूलों को इकठ्ठा करके देवराज ने दुबारा से भगवान शिव के ऊपर फेंका | चलो बाहर से फूलों की डलिया खरीदने का पैसा बच गया |
“हे कृपानिधान, हे दया के सागर |” वरुणदेव ने सुर में सुर मिलाया |
“चुप कर , वो भगवान विष्णु का है |” देवराज ने कहा |
“मला माहेत नाहीं पण मला चांगला दिस्तोय |” पीछे से भगवान गणपति आते हुए दिखाई दिए |
“महाराज , मला मराठी हेत नाहीं |” देवराज ने मराठी में सीखा हुआ अपना एकमात्र वेदवाक्य खर्च कर दिया |
“आती तो मुझे भी नहीं |” भगवान गणपति ने झेंपते हुए कहा | लेकिन अब क्या करें, जॉब के चक्कर में क्या क्या नहीं करना पड़ता | “खैर तुम बताओ, आज पापा को डिस्टर्ब करने क्यों आये हो ?”
“हे हे … कैसी बात करते हैं भगवन आप भी |” देवराज ने बड़ी निपुणता से रीमा डेंटल कॉलेज ऋषिकेश (ये बीच में एड था |) द्वारा स्वच्छ एवं उज्जवल किये दांत दिखाए |
“बेटा, तू तो रैण दे | ये बाल धूप में सफ़ेद नहीं हुए |” भगवान ने उन्हें बीच में ही काट दिया |
“हे सर्वप्रथम पूज्य, हे लम्बोदर, हे गजानन … ” देवराज ने चापलूसी जारी रखी |
“अब बस भी कर …” भगवान ने तकरीबन शर्माते हुए कहा |
“हे विघ्नहर्ता, हे मंगलकर्ता” देवराज बिना वजह यूँ ही देवराज नहीं थे |
“अच्छा चल बोल, क्या करना है ?” अभी प्रसन्नवदन भगवान बोले |
“महाराज, हम बड़ी मुसीबत में हैं |”
“क्या फिर किसी दानव ने तीनों लोकों पे उत्पात मचा रखा है |” विनायक की भृकुटी तन गयी |
“वही तो नहीं हो रहा है महाराज |” देवराज ने चिंतनीय विषय की तरह इसे उठाया |
“तो इसमें प्रोब्लेम क्या है ?” भगवान ने चिंतनीय विषय की तरह ही इसे, अमर उजाला के मुताबिक़, ठन्डे बस्ते में डाल दिया |
“यही तो समस्या है, देव |” देवराज ने सधे हुए शब्दों में बात जारी रखी | “कुछ नहीं हो रहा है, इसी वजह से तो कुछ भी नहीं हो रहा है, तथा यह भय मेरे अंदर समा गया है कि कहीं कुछ भी ना हो तो ऐसा लगता है कि मानों कुछ हो ना जाए |”
“एक मिनट, एक मिनट , क्या हो रहा है ?” भगवान कन्फ्यूज होकर बोले |
“देव, हम लोग खाली बैठे बैठे बोर हो गए हैं |” वरुणदेव ने कहा | “आपके कहे मुताबिक़ बैटमैन का कामिक्स भी पूरा खत्म कर दिया है |”
… … … कुड कुड … … … कुड कुड … …
“किन्तु, ऐसा कुछ करना शरुष्टि के नियमों के खिलाफ होगा |” भगवान ने पूरा जोर देकर कहा |
“सृष्टि के ?” देवराज ने पूछा |
“हाँ वही, शरुष्टि के |” भगवान ने पुन: जोर दिया |
“तुम कुछ चिंतित दिखाई दे रहे हो देवराज ?” भगवान शिव ने तीसरे को छोड़कर बाकी नेत्र खोले |
“कहो, क्या चिंता है तुम्हारी ?”
“प्रभु … आप तो अंतर्यामी हैं |” देवराज ने झुककर कहा | वरुण सोच रहे थे कि इसमें अंतर्यामी की क्या बात है इतनी देर से यहाँ पर खड़े हम चीख रहे हैं तो जाहिर है चिंतित ही होंगे |
“वरुणदेव आपकी बात से इत्तिफाक नहीं रखते हैं देवराज |” भोलेनाथ मंद मंद मुस्कुरा रहे थे |
“नहीं, नहीं देवाधिदेव , मुझ मूर्ख को क्षमा कर दीजिए | आप नेत्र बंद कर त्रिकालदर्शी हैं |” वरुणदेव गिडगिडाने लगे |
“मैं नेत्र खोलकर भी त्रिकालदर्शी हूँ, वरुणदेव |” भगवान इन सब में रस लेने लगे थे |
“प्रभु, कुछ नहीं होने से एक अजीब सा संकट आन पड़ा है | कुछ भी नहीं हो रहा है | जिससे हमेँ बड़ी बेचैनी हो रही है |” देवराज ने वस्तुत: बेचैनी का ही भाव दिखाया | बेचैनी का इलाज़, भावनगर वाले शेठ ब्रदर्स का कायमचूर्ण (रुकावट के लिए खेद है |)
“देवराज! वरुण देव! आप लोग जगतपिता के पास जाएँ | वही आपकी सहायता कर सकते हैं | सीधे हाथ की तरफ दूसरी गली छोडके तीसरी में दांयी तरफ जाना | बाँई तरफ जाओगे तो राष्ट्रपिता के पास पहुँच जाओगे |” भगवन शिव ने पुन: नेत्र बंद कर लिए |
“किन्तु प्रभु! परमपिता हमें फिर श्रीहरिविष्णु के पास भेज देंगे | तो आप ही क्यूँ नहीं वही भेज देते |” वरुणदेव ने मंद मंद मुस्कुराते हुए कहा | किन्तु इससे उनके मन में छिपा कलुष नहीं धुल पाया |
“चुपचाप प्रोसीजर फोलो करो |” आकाशवाणी हुई | “ये आकाशवाणी का नजीबाबाद केंद्र है, दोस्तों हमारी जिंदगी में कुछ गीत इस तरह असर डालते हैं, मानों जिंदगी का एक हिस्सा बन गए हों | ऐसे ही गीतों को समर्पित ये हमारा आज का प्रोग्राम है हमसाया | अब आप सुनिए ये खूबसूरत गीत … ”
तो राजन, पांच सौ एक ब्राम्हणों को भोजन नहीं करवाने की वजह से श्रीसत्यनारायण जी महाराज, देवराज से इस प्रकार नाराज हुए कि उन्होंने उन्हें ब्रम्हालोक के बजाए मेरठ के ब्रम्हपुरी नामक स्थान पर भेज दिया |
“आह! देवराज, यह देखो, इधर साइन बोर्ड लगा है ब्रम्हपुरी का | ब्रम्हा जी काफी अडवांस हो गए हैं |”
“किन्तु व्यास जी! हमारी एक शंका है | श्री भगवान जी तो देवराज से नाराज थे, पर वरुणदेव ने उनका क्या बिगाड़ा था | उनको क्यों रास्ता भटका दिया |”
“राजन ! आपका प्रश्न बड़ा ही उत्तम है |” इस प्रकार व्यास जी कम से कम दो मिनट तक आँखें मूंदे बैठे रहे और मन ही मन उस प्रश्न का रसास्वादन करने लगे | जब पूरा रस चूस लिया गया, तो उन्होंने मधुर वाणी से कहा |
“बेटा, ज़रा पानी लेकर आओ |”
वाणी तुरंत पानी लेकर आई |
“अब इस पानी को फेंक दो |”
वाणी ने वैसा ही किया |
“जाओ, अब अपने स्थान पर लौट जाओ |”
वाणी ने जो कहा, विधिवत किया |
“देखा आपने राजन !” व्यास जी पूरी आत्मीयता से बोले |
आत्मीयता वहाँ पर कोई ना थी, सो राजन को ही सुनना पड़ा |
“जी ऋषिकुल श्रेष्ठ !”
“अर्थात, जिस प्रकार बर्तन में रखे पानी को फेंक देने से वह बह जाता है, उसी प्रकार देवराज इंद्र के साथ घूमने की वजह से वरुणदेव को भी सजा का बराबर हकदार होना पड़ेगा |”
“अतिउत्तम ऋषिवर !”
“और वैसे भी यह कथा स्वयं काकभुशुंडी जी को शुक ने, शुक को देवर्षि नारद ने और देवर्षि नारद को ब्रम्हा जी ने सुनाई है | तो इस पर आपत्ति उठाने वाले हम और आप तुच्छ लोग कौन होते हैं |”
“आह! प्रकृति और मानव का ऐसा सामीप्य! देवराज भावविभोर हो उठे | मनुष्य, अपने ही प्राकृतिक नित्यकर्मों की मधुर सुगंध लेता हुआ | सुवरों के बच्चों को लात मारकर अपने मार्ग से हटाता हुआ बढ़ा चला आ रहा है | उफ़, यहाँ के पशु पक्षी और मनुष्य आपस में कितने मैत्रीपूर्ण और परस्पर सहयोग से रहते हैं | ऐसा सिर्फ़ सृष्टि के रचयिता के लोक में ही संभव था | यह देखकर देवराज की आँखें नम हो उठी | उन नम आँखों से कुछ बूंदे पहले से लबालब भरे शहर के गटर में उन्होंने बहा दिया | जिससे वहाँ बाढ़ जैसे हालत पैदा हो गए | पानी खतरे के निशान से ऊपर बहने लगा, किन्तु स्थिति काबू में बताई गयी |”
“हे व्यास देव ! हम इस कहानी का कौन सा एडिशन सुन रहे हैं ? काकभुशुंडी जी का, शुक का, देवर्षि नारद का, या स्वयं ब्रम्हा जी का |” राजन के मुख पर शंका के बादल मंडरा रहे थे |
व्यास जी ने राजन को ऊपर से नीचे तक देखा | राजन के मुख पर अद्भुत तेज था | यह देखकर व्यास जी भी अपना तेज दो वाट और बढ़ा लिया, और मन ही मन राजन की वाट लगाने का भी दृढ संकल्प ले लिया |
“हे राजन ! आपका प्रश्न बड़ा ही उत्तम है |” किन्तु इस बार व्यास जी ने प्रश्न का रसास्वादन ना किया, अपितु उनके चेहरे पर कल्छाण(स्थानीय शब्दों का सुन्दर प्रयोग किया है |) सी पड़ गयी |
“यही प्रश्न एक राजकन्या ने भी किया था, जिसके फलस्वरूप उसका विवाह ना हो सका | उसके पुत्र ने, जो कि आगे चलकर सम्राट बना, भी यही प्रश्न शुक जी से किया जिससे वह अकाल ही काल कवलित हुआ | और उनके आगे की कई पीढियां निसंतान होकर मरीं |”
“हाँ अब लिखो, चहबच्चे … नहीं नहीं … छह बच्चे नहीं … ठीक से लिखो |” हिन्दी के एक उदीयमान लेखक को सिखाते हुए ब्रम्हा जी ने अपना धीरज नहीं खोया |
“हाँ, अब सही है |”
“हे जे पी|” लेखक ने श्रीमुख खोला |
“जे पी ?”
“बोले तो जगद पिता | हे जगद पिता, मेरी किताब तो छपेगी ना ?” लेखक ने मासूमियत से पूछा | तभी उसकी मासूमियत उसकी कई कहानियों की तरह अनछपी ही रह गए | वरुणदेव गाडी साइड में पार्क कर रहे थे |
“प्रभो , त्राहिमाम … त्राहिमाम” वरुणदेव देवराज के साथ रह कर नाटक करना सीख रहे थे |
“प्रभो, भीषण संकट आ पड़ा है |” देवराज ने कहा |
“एक मिनट … इस बेचारे की अब तक एक भी किताब नहीं छपी है | जिन दो प्रकाशकों ने इसकी किताब छपवाने का वादा किया था, वो भी आजकल कहीं नजर नहीं आते | इसकी बीबी माइक्रोबायोलोजिस्ट है, इससे ज्यादा कमाती है | नारीवादी लोगों ने इसका ब्लॉग भी पढ़ना बंद कर दिया, और तो और धार्मिक भावनाएं भड़काने का एक मुकदमा इस पर कडकडडूमा की अदालत में चल रहा है |” ब्रम्हा जी ने एक नजर दीन हीन लेखक को देखा | - “क्यूँ सब सही कहा ना ?”
“जी महाराज, और माता को गठिया की शिकायत है |” लेखक ने पूरी दैन्यता एक साथ दिखाई |
“हाँ... अब तुम लोग बताओ... तुम्हारा संकट क्या इस बेचारे से बड़ा है |” ब्रम्हा जी ने उन्हें मुखातिब होकर कहा |
“हाँ परमपिता !” देवराज ने कहा | “हमारी चिंता सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड को लेकर है | माता के गठिया को लेकर नहीं |”
यह कहते हुए देवराज ने उस लेखक को धिकार के भाव से देखा | जिसका उस लेखक को बहुत बुरा लगा, और वह वहाँ से रोते रोते चला गया | उसने मन ही मन यह निश्चय किया कि यदि उसकी कोई कहानी गलती से भी छपी तो उसका विलेन देवराज होगा |
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